Friday, 15 December 2017

AIDS(एड्स) and HIV Virus


एड्स-  
  इसका पूरा नाम "उपार्जित प्रतिरक्षा न्यूनता संलक्षण(एक्वायर्ड इम्यूनों डिफिसियेंसी सिंड्रोम)" है । यह H.I.V. (ह्यूमन इम्यूनों डिफिसियेंसी वायरस) के द्वारा होता है । यह वायरस रिट्रोवायरस समूह में आता है । यह एक यौन संचारित रोग है ।
इतिहास-
           एड्स की खोज अमेरिका में जून 1981 में की गई, जब कैलिफोर्निया के कुछ डॉक्टर पाँच समलैंगिक प्रवृति के मनुष्यों की जाँच कर रहे थे तब उन्होने एक बहुत कम पाये जाने वाले न्यूमोनिया की खोज की, जिसे बाद में एड्स कहा गया और जो HIV विषाणु/वायरस के द्वारा होता है ।
HIV की संरचना-

  यह आवरण युकत विषाणु है । ये 90 से 120 n.m. व्यास के होते है । ये गोलाकार वास्तव में बहुतलीय होते है । इन्हें इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप से देखा जा सकता है । इसके मध्य में न्यूक्लियो प्रोटीन का एक कोर होता है ,जिसमें एक स्ट्रेंड RNA तथा प्रोटीन पाया जाता है । विषाणु RNA के साथ ट्रांसक्रिप्टेज एंजाइम भी पाया जाता है । कोर एक प्रोटीन खोल केप्सिड से घिरा रहता है, यह खोल कई छोटी-2 इकाइयों का बना होता है जिन्हें केप्सोमीयर कहते है । कोर व कैप्सिड को मिलाकर न्यूक्लियो-कैप्सिड कहते है । HIV के कैप्सिड के बाहर लिपिड व प्रोटीन का बना  एक आवरण पाया जाता है ।
HIV विषाणु को प्राप्त करने के स्थल-
1. रूधिर- कुछ मोनोसाइट व लिम्फोसाइट से
2. कोशिका में स्वतंत्र रूप से उपस्थित प्लाज्मा से
3.सीमन(वीर्य) व सर्वाइकल द्रव्य से
4. लार व दुग्ध से
5.आंसु से
6.त्वचा कोशिकाओं से
7.फुफ्फुस द्रव व कोशिकाओं से
एड्स का संक्रमण-
1. असुरक्षित यौन संपर्क से
2. रोगी या संवाहक व्यक्ति से रूधिराधान(Blood transfussion)
3. संक्रमित उत्तक या अंगों के दान से
4.संक्रमित माँ से उसके द्वारा पैदा किए गए शिशु को ।
5. रोगी द्वारा उपयोगित सुई का, स्वस्थ मानव द्वारा औषध या नशीली दवा का प्रेक्षेपण करने से ।
इसमें विषाणु 'सहायक टी लिम्फोसाइट कोशिकाओं' को समाप्त कर प्रतिरक्षा तंत्र को कमजोर या निष्क्रिय कर देता है । जिससे हमारा शरीर विभिन्न प्रकार के रोगों से ग्रसित हो जाता है ।
HIV विषाणु द्वारा स्वयं की प्रतिकृति बनाना-

एड्स के लक्षण-  शरीर में HIV के प्रवेश के बाद, रोग के चिन्ह और लक्षण प्रकट होने का समय कुछ माह से लेकर 8 से 10 वर्ष तक हो सकता है । HIV के प्रवेश के समय से इसकी पुष्टी होने तक की अवधि को विन्डोपीरियड कहते हैं । इसके लक्षण
1. वजन का काफी हद तक घट जाना
2. खांसी आते रहना
3.नाड़ो में सूजन
4. एक हफ्ते से अधिक समय तक पतले दस्त होना
5. रात को पसीना आना
6. शरीर पर निशान बनना
7. चमड़ी पर गुलाबी रंग के धब्बे होना
8. मानसिक रोग और याददाश का कमजोर होना
9. शरीर में दर्द होना
10. बार-बार बुखार आना
एड्स का परीक्षण-   
                         HIV की उपस्थिति शरीर में है या नहीं इसका पता रूधिर परीक्षण से किया जाता है । इसका एक विशेष परीक्षण होता है, जिसे "एलाइजा" (Enzyme Linked Immuno Sorbent Assay) कहते हैं । एलाइजा परीक्षण धनात्मक आने पर एक और पुष्टी परीक्षण "वेस्टनेब्लॉट" कराया जाता है ।
एड्स से बचाव-
1. जब भी इंजेक्शन लगवाने की आवश्कता हो तो डिस्पोजेबल सुई या फिर साफ निर्जमीकृत (स्टिरिलाइज्ड) सुई का प्रयोग करें ।
2. अधिकृत रक्त बैंकों से ही एड्स के लिए परीक्षित रूधिर आदान हेतु उपयोग में लाये ।
3.यौन संबंध सिर्फ एक विश्वसनीय साथी तक सीमित रखें । सुरक्षित यौन संबंध के लिए निरोध (कण्डोम) का प्रयोग करे । निरोध के प्रयोग से पर्याप्त सीमा तक एड्स से बचा जा सकता है ।
4. दूसरे मनुष्य द्वारा उपयोगित सुई से, नशीली दवाओं का सेवन न करे ।
5. एड्स से पीड़ित महिलाऐं गर्भ धारण न करे । क्योंकि उनके शिशु भी एड्स से पीड़ित हो जायोंगे ।
एड्स का उपचार-   अभी तक एड्स का कोई उपचार नहीं है । यह रोग हो जाने पर सदा घातक होता है । इसकी रोकथाम के लिए कोई टीका भी उपलब्ध नहीं है ।
एड्स के उपचार के लिए हाल ही में एक दवाई की खोज हुई है जिसका नाम एजिडोथाइमिडिन (AZT) है । AZT उत्क्रमित ट्रांसक्रिप्टेज एंजाइम की क्रिया को संदमित करता है । 
एड्स इन कारणों से नहीं फैलता है-
1. HIV संक्रमित या एड्स ग्रसित व्यक्ति से हाथ मिलाने से
2.  HIV संक्रमित या एड्स ग्रसित व्यक्ति के साथ खाना खाने या उसके साथ खाना बनाने से
3. HIV संक्रमित या एड्स ग्रसित व्यक्ति का तौलिया या टॉयलेट यूज करने से                 

रक्त स्कंदन कारक (Blood cloting factor)


कारक-I या फाइब्रिनोजन-        खोज-विर्चोव द्वारा । फाइब्रिनोजन प्लाज्मा में पाया जाने वाला एक ग्लाइकोप्रोटीन है ।इसका संश्लेषण यकृत द्वारा होता है । अघुलनशील अवस्था में पाया जाता है । स्कंदन के समय अघुलनशील फाइब्रीन में बदलता है ।
कारक-II  खोज-श्मिट्ड द्वारा । यह रक्त प्लाज्मा में पाया जाने वाला ग्लाइकोप्रोटीन है । इसका निर्माण यकृत में होता है । संश्लेषण के लिए विटामिन-K की आवश्यकता होती है ।
कारक-III या थ्रोम्बोप्लास्टिन-  यह एक लिपोप्रोटीन है । यह थ्रोम्बोसाइटिस व उत्तक कोशिकाओं में निष्क्रिय प्रोथ्रोम्बोप्लास्टिन के रूप में पाया जाता है । कारक-VII या प्रोकन्वर्टिन की उपस्थिति में यह सक्रिय थ्रोम्बोप्लास्टिन में बदल जाता है ।
कारक-IV या कैल्सियम आयन(Ca++)-     यह थ्रोम्बोप्लास्टिन निर्माण व प्रोथ्रोम्बिन के थ्रोम्बिन में रूपान्तरण के लिए आवश्यक है ।
कारक-V या प्रोएक्सिलरिन-  यह ताप अस्थिर कारक है । यह प्रोथ्रोम्बिन को थ्रोम्बिन में रूपान्तरित करने में सहायक है । प्रोथ्रोम्बोप्लास्टिन के स्रावण में भी सहायक है ।
कारक-VI या एक्सिलरिन-         इस कारक को अब मान्यता नहीं है ।
कारक-VII या प्रोकन्वर्टिन-  यह स्थिर कारक कहलाता है । इसके संश्लेषण में विटामिन-K आवश्यक होता है ।
कारक-VIII या एन्टीहीमोफिलिक ग्लोबुलिन(AGH)     यह कारक हीमोफिलिया रोग में अनुपस्थित होता है । यह एक ग्लाइकोप्रोटीन है । इसका निर्माण यकृत द्वारा होता है । यह फाइब्रिनोजन के साथ जुड़ा रहता है । अत: रक्त स्कंदन के बाद दिखाई नहीं देता है ।
कारक-IX या क्रिस्मस कारक- अणुभार 55,400 है ।   यह एक ग्लाइकोप्रोटीन है । इसका निर्माण यकृत द्वारा होता है । इसके संश्लेषण के लिए विटामिन-K की आवश्यकता होती है । इसकी कमी से क्रिस्मस रोग हो जाता है ।
कारक-X या स्टुअर्ट कारक -अणुभार 55,000 है ।     यह एक ग्लाइकोप्रोटीन है । इसका निर्माण यकृत द्वारा होता है । इसके संश्लेषण के लिए विटामिन-K की आवश्यकता होती है ।
कारक-XI या PTA कारक-     अणुभार 55,000 है ।      यह एक ग्लाइकोप्रोटीन है । इसका निर्माण यकृत द्वारा होता है । सक्रियण के लिए हेगमेन कारक आवश्यक है । कारक  PTA की कमी से हीमोफिलिया C हो जाता है ।
कारक-XII या हेगमेन कारक-  यह प्लाज्मा में पाया जाने वाला एक ग्लाइकोप्रोटीन है । अणुभार 90,000 है । 
कारक-XIII या फाइब्रिन स्थिरीकारक-  इसे लेकी लॉवेन्ड कारक भी कहते है । यह एक ग्लाइकोप्रोटीन है ।अणुभार 3,20,000 है । 

                                       

अध्याय-7 नियंत्रण एवं समन्वय,10th class ncert science chapter-7 part-2

तंत्रिका तंत्र-
                 जिस तंत्र के द्वारा विभिन्न अंगों का नियंत्रण और अंगों व वातावरण में सामंजस्य स्थापित होता है ,उसे तंत्रिका तंत्र कहते है । इससे प्रणी को वातावरण में होने वाले परिवर्तनों की जानकारी प्राप्त होती है । तंत्रिका कोशिका ,तंत्रिका तंत्र की संरचनात्मक व क्रियात्मक इकाई होती है । एककोशिकीय प्राणियों जैसे अमीबा आदि में तंत्रिका तंत्र नहीं पाया जाता है । बहुकोशिकीय प्राणियों जैसे हाइड्रा, तिलचट्टा, पक्षी, रेप्टाइल्स आदि में तंत्रिका तंत्र पाया जाता है । मनुष्य में सुविकसित तंत्रिका तंत्र पाया जाता है ।
इसे दो भागों में बाँटा गया है -
1. केन्द्रीय तंत्रिका तत्र(CNS = Central nervous system)   2. परिधीय तंत्रिका तंत्र(PNS = Peripheral nervous system )
1. केन्द्रीय तंत्रिका तत्र- यह शरीर की लम्बवत् रेखा पर  स्थित होता है । इसके अन्तर्गत मस्तिष्क व मेरूरज्जु आते है ।
2. परिधीय तंत्रिका तंत्र- इसके अन्तर्गत केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र से निकलने वाली व लौटने वाली तंत्रिकाऐं सम्मलित होती है । जो शरीर की परिधि में पायी जाती है । इसमें दो प्रकार के न्यूरॉन ,संवेदी न्यूरॉन/अभिवाही न्यूरॉन  (ये आवेगों को प्रभावी अंग से  CNS तक पहुँचाते है ।) व चालक न्यूरॉन/अपवाही न्यूरॉन (ये संकेतों को CNS से प्रभावी अंग तक पहुँचाते है ।) ,पाए जाते है ।
परिधीय तंत्रिका तंत्र को पुनः दो भागों में बाँटा जा सकता है -
I) कायिक तंत्रिका तंत्र(Somatic nervous system)- इसमें न्यूरॉन का वितरण कंकालीय पेशीयों को होता है ।
II)स्वायत्त तंत्रिका तंत्र(Autonomous nervous system = ANS)- इसमें न्यूरॉन का वितरण चिकनी पेशियों और आंतरांगों तक होता है । इस तंत्र को दो भागों में बाँटा गया है -
i) अनुकंपी तंत्रिका तंत्र(Sympethetic nervous system)- यह ह्रदय स्पंदन दर व रक्त दाब को बढ़ाता है ।
 ii) परानुकंपी तंत्रिका तंत्र(Parasympethetic nervous system)- यह ह्रदय स्पंदन दर व रक्त दाब को कम करता  है ।

जंतुओं की अंतः स्त्रावी ग्रथियाँ व उनसे स्त्रावित होने वाले हार्मोन-

I. पीयूष ग्रंथि- इसे मास्टर ग्रंथि भी कहते है । इसका आकार मटर के दाने के समान होता है । इससे स्त्रावित वृद्धि हार्मोन ,शारीरिक वृद्धि के लिए आवश्यक होता है ।
II. पीनियल ग्रंथि -  इससे मिलेटॉनिन हार्मोन स्त्रावित होता है । यह ताप नियमन , त्वचा के रंग को हल्का करना आदि में सहायक होता है ।
III. हाइपोथैलेमस -  इससे मुक्ति कारक, संदमक कारक , सोमेटोस्टेटिन व हार्मोन्स(ADH व ऑक्सीटोसिन) आदि स्त्रावित होते है । यह ताप नियमन करता है ।
IV. थायरॉइड(अवटु) ग्रंथि - इससे थायरॉक्सिन हार्मोन स्त्रावित होता है ।इस हार्मोन के निर्माण के आयोडीन की आवश्यकता होती है । यह हार्मोन कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन व वसा आदि के उपापचय का नियंत्रण करता है ।

आहार में आयोडीन की कमी होने से हम घेंघा या गॉयटर से ग्रसित हो सकते है, जिसमें गर्दन फूल जाती है ।

यदि बाल्यावस्था में थायरॉक्सीन हार्मोन की कमी हो जाये तो बोनापन हो सकता है जिसे क्रेटेनिज्म कहते है ।

V. पैराथायरॉइड ग्रंथि - इससे PTH या पैराथारमोन या कोलिप्स हार्मोन स्त्रावित होता है । यह रक्त में Ca++ के स्तर को बढ़ाता है ,अतः इसे हाइपरकैल्सिमिक हार्मोन भी कहते है ।
VI. थाइमस ग्रंथि -  इससे थाइमोसिन हार्मोन स्त्रावित होता है । यह लिम्फोसाइट्स के परिपक्वन में सहायक होता है ।
VII. एड्रीनल ग्रंथि(अधिवृक्क ग्रंथि) -  इससे एड्रीनलीन(एपिनेफ्रिन) हार्मोन स्त्रावित होता है । इसके कारण ह्रदय की धड़कन बढ़ जाती है ताकि हमारी पेशियों को ऑक्सीजन की आपूर्ति अधिक हो सके । इस हार्मोन को "करो या मरो" हार्मोन या "फ्लाइट हार्मोन" भी कहते है ।
VIII. अग्नाशय - इसमें उपस्थित "लैंगरहैंस के द्वीप" समूह इंसुलिन व ग्लूकेगॉन हार्मोन स्त्रावित करते है । इंसुलिन रक्त में ग्लूकोज(शर्करा) के स्तर को कम कर करता है जबकि ग्लूकेगॉन ग्लूकोज के स्तर को रक्त में बढ़ाता है ।
IX. वृषण - ये नर में प्राथमिक लैंगिक अंग है । इससे लैंगिक हार्मोन टेस्टोस्टेरॉन हार्मोन स्त्रावित होता है , यह द्वितीयक लैंगिक लक्षणों को प्रकट करता है ।
X. अण्डाशय -  ये मादा में प्राथमिक लैंगिक अंग है । इससे लैंगिक हार्मोन एस्ट्रोजन स्त्रावित होता है । यह द्वितीयक लैंगिक लक्षणों को प्रकट करता है ।

पादप हार्मोन- पादप हार्मोनपादपों में वृद्धि, विकास तथा पर्यावरण के प्रति अनुक्रिया के समन्वय में सहायता करते है । ये हार्मोन क्रिया क्षेत्र तक साधारण विसरण विधि द्वारा पहुँच जाते है । पादप हार्मोन को दो भागों में बाँटा गया है -

1. पादप वृद्धि प्रेरित हार्मोन- ये सामान्यतः पादप की वृद्धि से संबंधित होते है । इसके अन्तर्गत निम्न हार्मोन आते है -
I) ऑक्सीन- इसका संश्लेषण तने व जड़ के अग्रस्थ (टीप) भाग पर होता है । यह तने व जड़ की लंबाई में वृद्धि करता है ।
II) जिब्बेरेलिन- यह भी तने की लंबाई में वृद्धि करता है ।
III) साइटोकाइनिन- यह कोशिका विभाजन को प्रेरित करता है अतः यह उन क्षेत्रों में अधिक सांद्रता में पाया जाता है । जहाँ कोशिका विभाजन तीव्र होता है ।
2. पादप वृद्धि संदमक हार्मोन - यह हार्मोन पादप वृद्धि को संदमित करते है । इसमें निम्न हार्मोन आते है -
I) एब्सिसिक अम्ल- इसके कारण पत्तियों का विलगित व मुरझा जाती है । यह बीज आदि की प्रसुप्ति (डोरमेंसी) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।
पादपों में समन्वय-
                            पादप भी विभिन्न प्रकार से समन्वय प्रदर्शित करते है ।
   1. उद्दीपनों के प्रति अनुक्रिया-
                                       पादप भी उद्दीपनों के प्रति अनुक्रिया दर्शाते है ,जैसे छुई-मुई का पादप । अगर इस पादप को कोई छूता है तो यह अपनी पत्तियों को मोड़ लेता है और उद्दीपन के प्रति अनुक्रिया दर्शाता है । इसी कारण इस पादप को touch me not पादप भी कहते है ।
इस अनुक्रिया में विभिन्न प्रकार के वैद्युत रसायन सहायक होते है । लेकिन पादपों में सूचनाओं के संचरण के लिए जन्तुओं के समान विशिष्टीकृत उत्तक नहीं पाए जाते है ।
2. वृद्धि के कारण गति-
                              इसे मुख्यतः निम्न प्रकार से समझ सकते है ।
i) प्रकाशानुवर्तन गति -
                               अधिकांशतः पादपों में तना वाला भाग प्रकाश की दिशा में गति करता है ,इसे ही प्रकाशानुवर्तन गति कहते है । इसे तने की धनात्मक प्रकाशानुवर्तन गति भी कहते है ।
जबकी जड़े प्रकाश की विपरित दिशा में गति करती है अतः इसे ऋणात्मक प्रकाशानुवर्तन गति कहते है ।
ii) गुरूत्वानुवर्तन गति -
                                अधिकांशतः पादपों में जड़े गुरूत्वानुकर्षण बल की ओर गति करती है , इसे ही गुरूत्वानुवर्तन गति कहते है । इसे जड़ की धनात्मक गुरूत्वानुवर्तन गति भी कहते है ।
जबकी तना गुरूत्वानुकर्षण बल के विपरित दिशा में गति करता है इसी कारण इसे ऋणात्मक गुरूत्वानुवर्तन गति कहते है ।

इसी प्रकार पादपों में रसायनानुवर्तन गति(पादप भाग की रसायनों के प्रति गति) , जलानुवर्तन गति (पादप भाग की जल के प्रति गति) आदि पाई जाती है ।

अध्याय-7 नियंत्रण एवं समन्वय,10th class ncert science chapter-7 part-1

रस संवेदी ग्राही स्वाद का व घ्राणग्राही गंध का पता लगाते है ।
तंत्रिका कोशिका -
                           हमारे शरीर की सबसे बड़ी या लंबी कोशिका तंत्रिका कोशिका है ।
सिनेप्स क्षेत्र- दो तंत्रिका कोशिकाओं के मध्य के रिक्त स्थान जिसमें न्यूरोट्रांसमीटर होते है , उसे सिनेप्स कहते है ।
न्यूरोट्रांसमीटर- ऐसे रसायन जो तंत्रिका आवेगों के स्थानान्तरण में सहायक होते है , उन्हें न्यूरोट्रांसमीटर कहते है ।
सूचनाएँ प्रेषित करने की प्रक्रिया- 
                                   
    सूचनाएँ तंत्रिका कोशिका के डेन्ड्राइट्स(द्रुमिका) द्वारा उपार्जित की जाती है ।ये सूचनाएँ एक रासायनिक क्रिया द्वारा विद्युत आवेग में परिवर्तित की जाती है । ये आवेग कोशिकाय में पहुँचते है । और यहाँ से ये तंत्रिकाक्ष में पहुँचते है । तंत्रिकाक्ष पर एक्सॉलीमा कोशिकएँ होती है जो माइलिन आच्छद का निर्माण करती है । माइलिन आच्छद विद्युतरोधी होता है । तंत्रिकाक्ष से होते हुए आवेग तंत्रिका के अंतिम सिरों तक पहुँचते है, इसके पश्चात ये सिनेप्स क्षेत्र में पहुँचते है, जहाँ उपस्थित न्यूरोट्रांसमीटर आवेगों को अगली तंत्रिका कोशिका के डेन्ड्राइट्स को प्रेषित्र कर देते है । यही क्रम पुनः दोहराया जाता है और अन्त में आवेग अपने क्रिया स्थल जैसे संलगन पेशी कोशिका या ग्रंथि तक पहुँचते है ।
प्रतिवर्ती क्रिया-
                           बाह्य उत्तेजना जैसे स्पर्श, दर्द, ताप आदि के फलस्वरूप यकायक(अचानक) होने वाली अनुक्रिया  प्रतिवर्ती कहलाती है ।
उदा. किसी गर्म वस्तु को छूने पर हाथ का तुरंत हट जाना
प्रतिवर्ती चाप-
                    सूचनाओं या उत्तेजनाओं का प्रभावित अंग से केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र तक पहुँचना और वहाँ से उत्पन्न संकेतों का प्रभावित अंग तक पुनः पहुँचाने वाला मार्ग "प्रतिवर्ती चाप" कहलाता है ।

      कार्यप्रणाली- सूचनाऐं प्रभावित अंग से संवेदी तंत्रिका कोशिकाओं के द्वारा ग्रहण की जाती है । और ये संवेदी तंत्रिका कोशिकाऐं सूचनाओं को मेरूरज्जु तक पहुँचाती है ।
मेरूरज्जु में सभी तंत्रिका कोशिकाऐं एक बंडल के रूप में मिलती है । यहाँ से सूचनाऐं मस्तिष्क तक जाती है और मस्तिष्क दिशा-निर्देश संबंधी संकेत देता है । ये संकेत प्रेरक तंत्रिका कोशिका के द्वारा प्रभावित अंग तक पहुँचा दिए जाते है । सूचनाओं के संचरण के इस मार्ग को को ही प्रतिवर्ती चाप कहते है ।
इस प्रकार  प्रतिवर्ती चाप तुरंत अभिक्रिया के लिए एक दक्ष प्रणाली के रूप में कार्य करता है ।


मस्तिष्क-
 
कार्य
प्रमस्तिष्क-  बुद्धि , स्मरण शक्ति, चेतना, तर्क शक्ति, मानसिक योग्यता, बोलना, सामान्य संवेदनाऐं जैसे स्पर्श, ताप इत्यादि का ज्ञान । स्वाद ,गंध का ज्ञान । आवाज को पहचानना, भाषा का ज्ञान, दृश्य को देखकर पहचानना । इमोशन आदि का नियंत्रण ।
डाइ एन्सिफेलॉन- ताप नियमन करना, भूख-प्यास पर नियंत्रण, स्वायत्त शासित तंत्रिका तंत्र पर नियंत्रण, एन्डोक्राइन ग्रंथियों का नियंत्रण, घृणा-प्रेम का नियंत्रण
मध्यमस्तिष्क- देखना व सुनने का नियंत्रण करना
पश्च मस्तिष्क
I. सेरीबेलम- संतुलन बनाने का कार्य ।
II. पोन्स वेरूलाई- अनैच्छिक क्रियाओं का नियंत्रण ।
III. मेडुला ऑब्लोगेंटा- यह अनैच्छिक क्रियाओं का मुख्य केन्द्र है । यह ह्रदय स्पंदन , सांस लेना , वॉमिटिंग, मूत्र त्याग आदि का नियमन करना ।
मदिरा पान करने वाले व्यक्तियों का सेरीबेलम प्रभावित होता है ,जिसके कारण वो लड़खड़ा कर चलते है अर्थात संतुलन नहीं बना पाते है ।
खोपड़ी व मस्तिष्क की परते है उसकी बाहरी प्रघातों से रक्षा करती है ।
कशेरूक दंड या रीढ़ की हड्डी मेरूरज्जु की रक्षा करती है ।




Sunday, 3 December 2017

अध्याय-6 जैव प्रक्रम, 10th class ncert science chapter-6 part-1

अध्याय-6
जैव प्रक्रम, 10th class ncert science  

⦁जैव प्रक्रम-  जीवों में वे सभी प्रक्रम जो सम्मिलित रूप से अनुरक्षण का कार्य करते हैं , जैव प्रक्रम कहलाते है ।
⦁श्वसन-   शरीर के बाहर से ऑक्सीजन को ग्रहण करना तथा कोशिकीय आवश्यकतानुसार खाद्य स्रोत के विघटन में उसका उपयोग ' श्वसन' कहलाता है ।
⦁एक कोशिकीय जीव पर्यावरण के सीधे संपर्क में रहते है । अत: वे ऑक्सीजन की पूर्ति विसरण के द्वारा सरलतापूर्वक कर सकते है । जबकी बहुकोशिकीय जीवों में कोशिकाऐं सीधे पर्यावरण के संपर्क में नहीं रहती है अत: ऑक्सीजन की आवश्यकता पूरी करने में विसरण अपर्याप्त है ।

⦁उत्सर्जन - शरीर में मेटाबॉलिक (उपापचयी) प्रक्रियाओं के फलस्वरूप बने हानिकारक या अपशिष्ट उपोत्पादों को बाहर निकालने के प्रक्रम को उत्सर्जन कहते है ।

⦁स्वपोषी व विषमपोषी जीव-

स्वपोषी जीव- ऐसे जीव जो अपना भोजन स्वयं बनाते हैं , उन्हें स्वपोषी जीव कहते है । इनमें संचित भोजन स्टार्च होता है । उदाहरण- पौधे
विषमपोषी जीव- ऐसे जीव जो अपना भोजन स्वयं नहीं बनाते है और भोजन के लिए परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से स्वपोषियों पर निर्भर रहते है ,उन्हें विषमपोषी जीव कहते है । इनमें संचित भोजन या कार्बोहाइड्रेट ग्लाइकोजन होता है । उदाहरण- मानव, जूँ , अमरबेल

⦁पोषण-  वह प्रक्रिया जिसके अन्तर्गत पादपों के द्वारा बनाए गये भोज्य पदार्थ या जंतुओं के द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पादपों से ग्रहण किए गए भोज्य पदार्थ जो सजीवों की विभिन्न जैविक व शारीरिक क्रियाओं में सहायक होते है , पोषण कहलाती है ।

पोषण के प्रकार-
स्वपोषी पोषण- ऐसे पोषण जिसमें स्वपोषी जीव बाहर से लिए गए पदार्थों को ऊर्जा के रूप में संचित कर लेते है , स्वपोषी पोषण कहलाता है । उदाहरण- पौधे

विषमपोषी पोषण- ऐसा पोषण जिसमें जीव आहार या भोजन के लिए पादपों या अन्य जीव पर निर्भर रहते है ,उसे विषमपोषी पोषण या परपोषी पोषण कहते है । उदाहरण-मानव , जूँ आदि ।
⦁अमीबा एककोशिकीय जीव जो कूटपाद की सहायता से भोजन को ग्रहण करता है ।

⦁प्रकाश संश्लेषण-  पौधे में सजीव कोशिकाओं (क्लोरोप्लास्ट) के द्वारा प्रकाश ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में बदलना, प्रकाश संश्लेषण कहलाता है । प्रकाश संश्लेषण की क्रिया पौधे के हरे भागों जैसे पत्ति आदि में होती है ।
इसमें निम्न चरण होते है -
I. क्लोरोफिल (क्लोरोप्लास्ट) द्वारा प्रकाश ऊर्जा को अवशोषित करना ।
II. प्रकाश ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में रूपांतरित करना तथा जल अणुओं का हाइड्रोजन व ऑक्सीजन में अपघटन करना ।
III. कार्बनडाइऑक्साइड (CO2) का कार्बोहाइड्रेट में अपचयन करना ।
प्रकाश संश्लेषण की समीकरण-


⦁स्थलीय पौधे प्रकाश संश्लेषण के लिए जल की पूर्ति जड़ों द्वारा मिट्टी में उपस्थित जल के अवशोषण से करते है । इसी के साथ विभिन्न तत्व जैसे नाइट्रोजन , फॉस्फोरस , लोहा तथा मैग्निशियम भी किसी न किसी रूप में लिए जाते है ।
⦁रंध्र-  ये पत्ति की सतह पर उपस्थित होते है । प्रकाश संश्लेषण के लिए गैसों का अधिकांश आदान-प्रदान इन्हीं के द्वारा होता है । 
लेकिन गैसों का आदान-प्रदान तने, पत्ति व जड़ की सतह से भी होता है ।इन रंध्रों स पर्याप्त मात्रा में जल की हानि भी होती है ।जब प्रकाश संश्लेषण के लिए CO2 की आवश्यकता नहीं होती है तो पौधा इन रंध्रों को बंद कर लेता है । रंध्रों  का खुलना व बंद होना द्वार कोशिकाओं का कार्य है । द्वार कोशिकाऐं में जब जल अंदर प्रवेश करता है तो वे फूल जाती है और रंध्र का छिद्र खुल जाता है । इसी प्रकार जब द्वार कोशिकाऐं सिकुड़ती है तो छिद्र बंद हो जाता है ।


क्लोरोप्लास्ट(हरित लवक)-   हरे रंग के बिंदूवत्त कोशिकांग जिनमें क्लोरोफिल होता है उन्हें क्लोरोप्लास्ट कहते है । ये प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में सहायक होते है ।

अध्याय-6 जैव प्रक्रम ,10th class ncert science chapter-6 part-2

⦁मानव पाचन तंत्र-

पाचन- वह प्रक्रिया जिसके द्वारा जटिल भोज्य पदार्थों को सरल   अवशोषण योग्य भोज्य पदार्थों में बदला जाता है ताकि वे शरीर द्वारा उपयोग में लाए जा सके , पाचन कहलाती है ।
वह अंगतंत्र जो पाचन क्रिया से संबंधित होता है , पाचन तंत्र कहलाता है । इसे दो भागों में बांटते है -
1. आहारनाल     2.  पाचन ग्रंथिया

1. आहारनाल-  मनुष्य की आहारनाल पूर्ण होती है । यह मुँह से गुदा तक विस्तारित एक नली के समान होती है । इसे निम्न भागों में बांटते है-
i.मुँह -  मुँह में दांत भोजन को छोटे-छोटे कणों में तोड़ते है और जीह्वा लार की मदद से भोजन को अच्छी तरह मिलाती है एवं भोजन को लसलसा बनाती है । यहाँ लार में उपस्थित एंजाइम लार एमाइलेस या टायलिन मंड या स्टार्च कणों को शर्करा में बदल देते है ।

ii.ग्रसनी-  मुँख गुहा के नीचे ग्रसनी होती है । ग्रसनी एक ऐसा स्थान है जहाँ श्वसन तंत्र तथा पाचन तंत्र दोनों खुलते है । यहाँ कोई पाचन नहीं होता है ।

iii.ग्रसिका(इसोफेगस) -  इसमें क्रमांकुंचन गति पायी जाती है ,जिसके द्वारा भोजन आमाशय में पहुँचता है । ग्रसिका में कोई पाचन नहीं होता है ।
iv.आमाशय-  भोजन के आने पर आमाशय फैल जाता है ।और जठर ग्रंथियों के द्वारा जठर रस भोजन में मिलाए जाते है व भोजन को अच्छी तरह मिश्रित किया जाता है । जठर ग्रथियाँ हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCl) , पेप्सिनोजन व प्रोरेनिन आदि का स्त्रावण करती है । HCl अम्लीय माध्यम तैयार करता है व पेप्सिनोजन को सक्रिय पेप्सिन में और प्रोरेनिन को सक्रिय रेनिन में बदलता है । पेप्सिन प्रोटीन का पाचन करता है व रेनिन दूध में उपस्थित में प्रोटीन केसीन का पाचन करता है ।

v.क्षुद्रांत्र(छोटी आंत्र) -  क्षुद्रांत्र आहारनाल का सबसे लंबा भाग है । इसकी लंबाई लगभग 5-6 मीटर होती है । आमाशय से भोजन क्षुद्रांत्र में प्रवेश करता है । क्षुद्रांत्र में आए हुए भोजन में अग्नाशयी रस व पित्त रस मिलाए जाते है । पित्त रस भोजन को क्षारीय बनाते है ताकि अग्नाशयी रस उस पर क्रिया कर सके । इसके अलावा पित्त रस वसा को छोटी-छोटी गोलिकाओं में तोड़ देते है ताकि वसा का पाचन लाइपेज एंजाइम की सहायता से सरलतापूर्वक हो सके । इस क्रिया को वसा का इमल्सीकरण या पायसीकरण कहते है ।
क्षुद्रांत्र के द्वारा भी स्त्रावित एंजाइम भी भोजन में मिलाए जाते है जो प्रोटीन को अमीनों अम्लों में ,जटिल कार्बोहाइड्रेट को ग्लूकोज में और वसा को वसा अम्ल  व ग्लिसरोल में पाचित कर देते है । इन पाचित पदार्थों को क्षुद्रांत्र की भित्ति के द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है । क्षुद्रांत्र के आंतरिक अस्तर पर अनेक अंगुली के समान प्रवर्ध होते है , जिन्हें दीर्घरोम कहते है । ये अवशोषण  का सतही क्षेत्रफल बढ़ाते है ।
दीर्घरोमों में रूधिर वाहिकाऐं अधिसंख्य में होती है, जो अवशोषित भोजन को शरीर की प्रत्येक कोशिका में पहुँचाती है । यहाँ इसका उपयोग ऊर्जा प्राप्त करने में , नए उत्तकों के निर्माण में और पुराने उत्तको की मरम्मत में होता है ।

vi.बृहद्रांत्र(बड़ी आंत्र) -  बिना पचा हुआ भोजन बृहद्रांत्र में भेज दिया जाता है जहाँ अधिसंख्य दीर्घरोम इसमें उपस्थित जल का अवशोषण कर लेते है । शेष पदार्थ गुदा द्वार द्वारा शरीर के बाहर मल के रूप में त्याग दिया जाता है, इस क्रिया को बहिःक्षेपण कहते है ।

⦁एसिडिटी - आमाशय का श्लेष्म स्तर HCl से आमाशय की दीवार की रक्षा करता है । कभी-कभी HCl का स्त्रावण ज्यादा होने लगता है जिसके कारण हमें खट्टी डकारे आने लगती है ,इस स्थिति को ही एसिडिटी कहते है ।
क्षारीय पदार्थों के उपयोग से इससे छुटकारा पाया जा सकता है जैसे     मिल्क ऑफ मैग्निशिया , इनो आदि । कई औषधियाँ भी इससे राहत प्रदान करती है ।

⦁दंतक्षरण-  दंतक्षरण या दंतक्षय इनैमल तथा डेंटीन के शनैः शनैः मृदूकरण के कारण होता है । इसका प्रारंभ तब होता है जब जीवाणु शर्करा पर क्रिया करके अम्ल बनाते है तब इनैमल मृदू या विखनिजीकृत हो जाता है । अनेक जीवाणु कोशिका खाद्य कणों के साथ मिलकर दाँतों पर चिपक कर दंतप्लाक बना देते है । प्लाक दांतों को ढ़क लेता है इसलिए लार अम्ल को उदासीन करने के लिए दंत सतह तक नहीं पहुँच पाती है  और  सूक्ष्मजीव   मज्जा(केविटी या गुहा) में प्रवेश कर जलन व संक्रमण उत्पन्न करते है ।
अतः भोजनोपरांत ब्रश करने से प्लाक हट सकता है और इससे जीवाणु का आक्रमण नहीं होता है ।

⦁विभिन्न पथों द्वारा ग्लुकोज का विखंडन- 


  • अधिकांश कोशिकीय प्रक्रमों के लिए ए.टी.पी. (A.T.P.) ऊर्जा मुद्रा है । श्वसन प्रक्रम में मोचित ऊर्जा का उपयोग ए.डी.पी. तथा अकार्बनिक फॉस्फेट से ए.टी.पी. अणु बनाने में किया जाता है ।

⦁कोशिका में  A.T.P. का उपयोग पेशियों के सिकुड़ने , प्रोटीन संश्लेषण , तंत्रिका आवेग संचरण आदि अनेक क्रियाओं के लिए किया जा सकता  है ।

⦁मानव श्वसन तंत्र

श्वसन-     शरीर के बाहर से ऑक्सीजन को ग्रहण करना तथा कोशिकीय आवश्यकतानुसार खाद्य स्रोत के विघटन में उसका उपयोग ' श्वसन' कहलाता है ।
नासाद्वार से वायु शरीर के अन्दर प्रवेश करती है । नासाद्वार में उपस्थित महीन बाल इस वायु को निस्पंदित करते है जिससे धूल के कण अलग हो जाते , इसमें श्लेष्म परत भी सहायक होती है । इसके पश्चात शुद्ध वायु कंठ से होती हुई श्वासनली में प्रवेश करती है । कंठ में C- आकार के उपास्थिल वलय होते है जो श्वासनली को निपतित(पिचकने) होने से बचाते है । श्वासनली आगे जाकर दो भागों में बंट जाती है । प्रत्येक भाग अपनी ओर के फुफ्फुसीय खंड में प्रवेश करता है और छोटी-छोटी श्वसनिकाओं या नलिकाओं में विभक्त हो जाता है । अंत में यह गुब्बारेनुमा संरचनाओं के जाल  से संपर्कित हो जाता है , जिन्हें कूपिकाऐं कहते है । कूपिकाऐं गैसों के विनिमय के लिए सतह उपलब्ध करवाती है । इनकी भित्ति में में रूधिर वाहिकाओं का विस्तीर्ण जाल होता है । अन्तः श्वसन में वायु(ऑक्सीजन) कूपिकाओं की सतह से विनिमयित  होकर वाहिकाओं के द्वारा शरीर की प्रत्येक कोशिका में पहुँचा दी जाता है । बहिः श्वसन में प्रत्येक कोशिका में निर्मित CO2 वाहिकाओं के द्वारा कूपिकाओं की सतह तक लायी जाती और अंत में नासाद्वार के द्वारा बाहर निकाल दी जाती है ।
यदि कूपिकाओं की सतह को फैला दिया जाए तो यह 80 वर्ग मीटर क्षेत्र को ढ़क लेंगी ।
ऑक्सीजन का परिवहन विभिन्न उत्तकों तक हिमोग्लोबिन नामक श्वसन वर्णक के द्वारा किया जाता है जिसमें ऑक्सीजन के प्रति उच्च बंधुता होती है ।
CO2 जल में अधिक विलेय है इसलिए इसका परिवहन हमारे रूधिर में विलेय आवस्था में होता है ।

अध्याय-6 जैव प्रक्रम, 10th class ncert science chapter-6 part-3

⦁ह्रदय-  हमारा ह्रदय पंप की तरह कार्य करता है । मानव ह्रदय एक पेशीय अंग है जो हमारी मुट्ठी के आकार का होता है । हमारा ह्रदय चार कोष्ठीय होता है । जिसमें दो आलिंद व दो निलय होते है ।निलय ,आलिंदो की अपेक्षा बड़े होते है और उनकी भित्तियाँ भी मोटी होती है ।

फुफ्फुसीय शिराओं से शुद्ध रक्त(ऑक्सीजनित रक्त) बाऐं आलिंद में आता है । बाऐं आलिंद में रूधिर पर्याप्त मात्रा में भरने पर द्विवलन कपाट खुल जाते है । और रक्त बाऐं निलय में आता है व बायाँ आलिंद शिथिल हो जाता ,बाऐं निलय के भरने पर रूधिर महाधमनी में पंप किया जाता है यहाँ से यह धमनियों ,धमनिकओं आदि को भेज दिया जाता है और अंत में इसे शरीर के प्रत्येक भाग तक पहुँचा दिया जाता है ।शरीर के प्रत्येक भाग से अशुद्ध रूधिर(विऑक्सीजनित रक्त) शिरिकाओं, शिराओं आदि से होते हुए यह महाशिरा में पहुँचता है और यहाँ से यह दायाँ आलिंद में जाता है । इसके पश्चात यह त्रिवलन कपाट खुलने से दायाँ निलय में आ जाता है । अंत में इसे दायाँ निलय के द्वारा फुफ्फुसीय धमनी में भेज दिया जाता है । फुफ्फुसीय धमनी इसे ऑक्सिजनित करने के लिए पुनः फुफ्फुस में भेज देती

इस प्रकार एक ह्रदय चक्र में रूधिर ह्रदय में दो बार प्रवेश करता है इस कारण इसे दोहरा परिसंचरण कहते है ।

रूधिर वाहिकाओं की भित्ति के विरूद्ध जो दाब लगता है ,उसे रक्त दाब कहते है ।
निलय प्रकुंचन के दौरान धमनियों के अंदर का दाब  प्रकुंचन दाब तथा निलय अनुशिथिलन के दौरान धमनी के अंदर का दाब अनुशिथिलन दाब कहलाता है । सामान्य प्रकुंचन दाब 120 mmHg व अनुशिथिलन दाब 80mmHg होता है । सामान्य व्यक्ति का रक्त दाब 120/80 mmHg होता है । रक्त दाब को स्फीग्नोमेनोमीटर यंत्र के द्वारा मापा जाता है ।

⦁प्लैटलैट्स-  प्लैटलैट्स कोशिकाऐं पूरे रूधिर तंत्र में भ्रमण करती रहती है । घाव लगे स्थान पर ये रूधिर का थक्का बनाकर रक्त स्राव को रोकती है । जिससे रूधिर का चोट लगे स्थान से बहना बंद हो जाता है ।

⦁लसिका-  यदि रक्त में से कुछ प्लाज्मा प्रोटीन और रूधिर कोशिकऐं हटा दी जाऐं तो शेष बचा तरल लसिका कहलाता है ।इस तरल में अल्प मात्रा में प्रोटीन होते है । यह तरल रंगहीन होता है । पचा हुआ व क्षुद्रांत्र द्वारा अवशोषित वसा का वहन लसीका द्वारा होता है । इस प्रकार लसिका वहन में मदद करता है ।

⦁पौधों में परिवहन-  पौधों में परिवहन के लिए विशिष्टीकृत उत्तक पाए जाते है । जिन्हें संवहन बंडल कहते है । संवहन बंडल में दो प्रकार के उत्तक पाए जाते है -
1. जाइलम    2.  फ्लोएम

1.जाइलम- यह जल व खनिज लवणों को जड़ो से पौधे की विभिन्न भागों तक पहुँचाता है । इसके निम्न भाग है-
i. वाहिनिका
ii. वाहिका
iii. जाइलम पैरेनकाइमा
iv. जाइलम तंतु
2. फ्लोएम- यह भोजन व अन्य पोषक पदार्थों को पत्तियों से पौधे के विभिन्न भागों तक पहुँचाते है । इसके निम्न भाग है -
i. चालिनी नलिका
ii. सहायक कोशिका
iii. फ्लोएम पेरेनकाइमा
iv. फ्लोएम तंतु

⦁मानव उत्सर्जन तंत्र-     मानव के उत्सर्जन तंत्र में एक जोड़ा वृक्क , एक जोड़ी मूत्रवाहिनी, एक मूत्राशय तथा एक मूत्रमार्ग होता है । वृक्क सेम के बीज के आकार के होते है जो उदर में रीढ़ की हड्डी के दोनों ओर स्थित होते है ।
उत्सर्जन-
                शरीर में मेटाबॉलिक (उपापचयी) प्रक्रियाओं के फलस्वरूप बने हानिकारक या अपशिष्ट उपोत्पादों को बाहर निकालने के प्रक्रम को उत्सर्जन कहते है ।

मूत्र निर्माण- मूत्र निर्माण का उद्देश्य रूधिर से हानिकार पदार्थों जैसे यूरिया आदि को छानकर बाहर करना है ।
वृक्क में आधारी निस्यंदन एकक(नेफ्रोन या वृक्काणु) ,जिन्हें वृक्क की संरचनात्मक व क्रियात्मक ईकाई कहते है , में बहुत पतली भित्ति वाली रूधिर कोशिकाओं का गुच्छ होता है । नेफ्रोन आपस में निकटता से पैक रहते है । प्रारंभिक निस्यंद में कुछ पदार्थ जैसे ग्लूकोज , अमीनों अम्ल , लवण और प्रचुर मात्रा में जल रह जाते है । इन पदार्थों का चयनित पुनरवशोषण हो जाता है । जल की मात्रा का पुनरवशोषण शरीर में उपलब्ध जल की मात्रा पर तथा कितना विलेय अपशिष्ट(यूरिया) उत्सर्जित करना है, पर निर्भर करता है ।प्रत्येक वृक्क में बना मूत्र एक लंबी नलिका, मूत्रवाहिनी में प्रवेश करता है । दोनों मूत्रवाहिनी मूत्राशय से जुड़ी रहती है और इनसे मूत्र मूत्राशय में आता है । मूत्राशय पेशीय होता है और उचित स्पंदन या आवेग मिलने पर मूत्र मूत्रमार्ग के द्वारा बाहर त्याग दिया जाता है ।




⦁अपोहन(कृत्रिम वृक्क)-  वृक्कों के संक्रमित हो जाने या अक्रिय हो जाने की दशा में शरीर में निर्मित नाइट्रोजनी अपशिष्ट पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने के लिए जिस कृत्रिम युक्ति का प्रयोग किया जाता है , उसे अपोहन कहते है ।

कृत्रिम वृक्क बहुत सी अर्धपारगम्य आस्तर वाली नलिकाओं से युक्त होती है । ये नलिकाऐं अपोहन द्रव से भरी टंकी में लगी होती है । इस द्रव का परासरण दाब रूधिर जैसा ही होता है लेकिन इसमें नाइट्रोजनी अपशिष्ट नहीं होते हैं । रोगी के रूधिर को इन नलिकाओं से प्रवाहित करते है । इस मार्ग में रूधिर से अपशिष्ट उत्पाद विसरण द्वारा अपोहन द्रव में आ जाते है । शुद्धिकृत रूधिर वापस रोगी के शरीर में पंपित कर दिया जाता है । यह वृक्क के कार्य के समान ही है लेकिन एक अंतर है कि इसमें कोई पुनरवशोषण नहीं होता है । प्रायः एक स्वस्थ वयस्क में प्रतिदिन 180 लीटर आरंभिक निस्यंद वृक्क में होता है । यद्यपि एक दिन में उत्सर्जित मूत्र का आयतन वास्तव में एक या दो लीटर होता है क्योंकि शेष निस्यंद वृक्क नलिकाओं में पुनरवशोषित हो जाता है ।

⦁पादपों में उत्सर्जन-    पादप में उत्सर्जन के लिए जंतुओं से भिन्न युक्तियाँ अपनाते है । इनमें कुछ अपशिष्ट पदार्थ गिरने वाली पत्तियों में एकत्र हो जाते है । अन्य अपशिष्ट उत्पाद रेजिन तथा गोंद के रूप में विशेष रूप पुराने जाइलम में संचित रहते है । पादप भी कुछ अपशिष्ट पदार्थों को अपने आसपास की मृदा में उत्सर्जित करते है ।

Saturday, 2 December 2017

अध्याय-5 तत्वों का आवर्त वर्गीकरण,10th class science ncert chapter-5


डॉबेराइनर का त्रिक सिद्धांत-
                                                   डॉबेराइनर  ने तीन-2 तत्वों वाले कुछ समूह  बनाए व उन समूहों को त्रिक कहा । त्रिक तीनों तत्वों को उनके परमाणु द्रव्यमान के आरोही क्रम में रखने पर बीच वाले तत्व का परमाणु द्रव्यमान अन्य दो तत्वों के परमाणु द्रव्यमान का लगभग औसत होता है ।
इस आधार पर डॉबेराइनर ने कुछ त्रिक बनाए
1. Li  Na  K
2. Ca  Sr  Ba 
3.  Cl  Br  I
कमियाँ- सभी तत्वों को त्रिक के रूप में में नहीं जमा सके ।

न्यूलैंडस का अष्टक सिद्धांत-
                                                   इस सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक तत्व के गुणधर्म अपने से आठवें तत्व के गुणधर्म के साथ समानता दर्शाते हैं ।
कमियाँ/सीमाएं-
1. यह सिद्धांत केवल कैल्सियम(Ca) तक ही लागू होता है ।
2. न्यूलैंडस ने कल्पना की थी कि प्रकृति में केवल 56 तत्व ही विद्यमान है । लेकिन बाद में अनेक तत्व खोजे गए जिनके गुणधर्म अष्टक सिद्धांत से मेल नहीं खाते है ।
3. यह सिद्धांत केवल हल्के तत्वों के लिए ही ठीक से लागू हो पाया ।
मेण्डेलीफ की आवर्त सारणी-
मेंडेलीफ ने जब अपना कार्य आरंभ किया तब 63 तत्व ज्ञात थे । उन्होंने तत्वों के परमाणु द्रव्यमान एंव उनके भौतिक व रासायनिक गुणधर्म के बीच संबंध स्थापित किया और बताया कि -
"तत्वों के भौतिक व रासायनिक गुणधर्म उनके "परमाणु द्रव्यमान" के आवर्ती फलन होते है ।"
उपलब्धियाँ-
1. इन्होने अपनी आवर्त सारणी में तीन स्थानों को खाली छोड़ और वहाँ आने वाले तत्वों की उन्होंने एका एल्युमिनियम, एका बोरोन व एका सिलिकॉन नाम दिया और बाद में इनके स्थान पर क्रमश: Ga, Sc, Ge को रखा गया ।
2. इनकी आवर्त सारणी की एक विशेषता और थी कि जब अक्रिय गैसों का पता चला तो उन्हें पिछली व्यवस्था को छेड़े बिना ही अन्य समूह में रखा जा सका ।
कमियाँ/सीमाएं-
1. हाइड्रोजन को आवर्त सारणी में नियत स्थान नहीं दिया जा सका ।
2. समस्थानिकों को सही स्थान नहीं दे पाए
3. परमाणु द्रव्यमान के आवर्ती फलन का भी कुछ जगहों पर उल्लंघन पाया गया ।
आधुनिक आवर्त सारणी/मोझले आवर्त सारणी-
           इसके अनुसार त्वों के भौतिक व रासायनिक गुणधर्म उनके "परमाणु क्रमांक" के आवर्ती फलन होते है ।
इस आवर्ती सारणी में 18 वर्ग व 7 आवर्त है ।
आधुनिक आवर्त सारणी की प्रवृति-
1.संयोजकता-
                  किसी तत्व या परमाणु के बाह्यत्तम कोश अथवा संयोजी कोश में उपस्थित इलेक्ट्रोनों की संख्या को ही उस तत्व या परमाणु की संयोजकता कहते है ।
आवर्त सारणी में बायें से दायें ओर जाने पर संयोजकता में वृद्धि होती है ।
2. परमाणु साइज-
                    आवर्त सारणी में बायें से दायें ओर जाने पर प्रभावी नाभिकीय आवेश में वृद्धि होती जाती है जिसके कारण आवर्त सारणी में बायें से दायें ओर जाने पर परमाणु साइज(त्रिज्या ) में कमी होती जाती है ।
 आवर्त सारणी में बायें से दायें ओर जाने परमाणु साइज क्रम या त्रिज्या क्रम-
                 Li > Be > B > C > N > O
3. धात्विक एंव अधात्विक गुणधर्म-
                                                     आवर्त सारणी में बायीं ओर धातुएँ (Na, Mg , Al आदि) स्थित होती हैं जबकी दायीं ओर अधातुएँ (Si, C, N , O , हेलोजन तत्व आदि ) स्थित होती है ।
अतः आवर्त सारणी में बायें से दायें ओर जाने पर अधात्विक गुणधर्म बढ़ता है जबकी धात्विक गुणधर्म घटता है ।

4. विद्युत ऋणात्मकता -
                             किसी तत्व या परमाणु द्वारा अन्य तत्व के इलेक्ट्रॉनों को अपनी ओर आकर्षित करने की क्षमता विद्युत ऋणात्मकता कहलाती है ।
अधातुओं की विद्युत ऋणात्मकता अधिक और धातुओं की विद्युत ऋणात्मकता कम या शून्य होती है ।
अतः आवर्त सारणी में बायें से दायें ओर जाने पर विद्युत ऋणात्मकता में वृद्धि होती है ।
5. ऑक्साइडों की प्रवृति-
                                 धातुओं के ऑक्साइड क्षारीय व अधातुओं के ऑक्साइड अम्लीय होते है । अतः आवर्त सारणी में बायें से दायें ओर जाने पर तत्वों के ऑक्साइडों की अम्लीय प्रवृति बढ़ती है ।
धात्विक एंव अधात्विक गुणधर्म-
धात्विक गुणधर्म-
ऐसे तत्व जो इलेक्ट्रॉन त्यागने की प्रवृति रखते है या विद्युत धनात्मक होते है ,वो धात्विक गुणधर्म प्रदर्शित करते है । धातुओं के ऑक्साइड क्षारीय प्रवृति के होते है ।
अधात्विक गुणधर्म-
ऐसे तत्व जो इलेक्ट्रॉन ग्रहण की प्रवृति रखते है या विद्युत ऋणात्मक होते है ,वो अधात्विक गुणधर्म प्रदर्शित करते है । अधातुओं के ऑक्साइड अम्लीय प्रवृति के होते है ।