⦁मानव पाचन तंत्र-
पाचन- वह प्रक्रिया जिसके द्वारा जटिल भोज्य पदार्थों को सरल अवशोषण योग्य भोज्य पदार्थों में बदला जाता है ताकि वे शरीर द्वारा उपयोग में लाए जा सके , पाचन कहलाती है ।
वह अंगतंत्र जो पाचन क्रिया से संबंधित होता है , पाचन तंत्र कहलाता है । इसे दो भागों में बांटते है -
1. आहारनाल 2. पाचन ग्रंथिया
1. आहारनाल- मनुष्य की आहारनाल पूर्ण होती है । यह मुँह से गुदा तक विस्तारित एक नली के समान होती है । इसे निम्न भागों में बांटते है-
i.मुँह - मुँह में दांत भोजन को छोटे-छोटे कणों में तोड़ते है और जीह्वा लार की मदद से भोजन को अच्छी तरह मिलाती है एवं भोजन को लसलसा बनाती है । यहाँ लार में उपस्थित एंजाइम लार एमाइलेस या टायलिन मंड या स्टार्च कणों को शर्करा में बदल देते है ।
ii.ग्रसनी- मुँख गुहा के नीचे ग्रसनी होती है । ग्रसनी एक ऐसा स्थान है जहाँ श्वसन तंत्र तथा पाचन तंत्र दोनों खुलते है । यहाँ कोई पाचन नहीं होता है ।
iii.ग्रसिका(इसोफेगस) - इसमें क्रमांकुंचन गति पायी जाती है ,जिसके द्वारा भोजन आमाशय में पहुँचता है । ग्रसिका में कोई पाचन नहीं होता है ।
iv.आमाशय- भोजन के आने पर आमाशय फैल जाता है ।और जठर ग्रंथियों के द्वारा जठर रस भोजन में मिलाए जाते है व भोजन को अच्छी तरह मिश्रित किया जाता है । जठर ग्रथियाँ हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCl) , पेप्सिनोजन व प्रोरेनिन आदि का स्त्रावण करती है । HCl अम्लीय माध्यम तैयार करता है व पेप्सिनोजन को सक्रिय पेप्सिन में और प्रोरेनिन को सक्रिय रेनिन में बदलता है । पेप्सिन प्रोटीन का पाचन करता है व रेनिन दूध में उपस्थित में प्रोटीन केसीन का पाचन करता है ।
v.क्षुद्रांत्र(छोटी आंत्र) - क्षुद्रांत्र आहारनाल का सबसे लंबा भाग है । इसकी लंबाई लगभग 5-6 मीटर होती है । आमाशय से भोजन क्षुद्रांत्र में प्रवेश करता है । क्षुद्रांत्र में आए हुए भोजन में अग्नाशयी रस व पित्त रस मिलाए जाते है । पित्त रस भोजन को क्षारीय बनाते है ताकि अग्नाशयी रस उस पर क्रिया कर सके । इसके अलावा पित्त रस वसा को छोटी-छोटी गोलिकाओं में तोड़ देते है ताकि वसा का पाचन लाइपेज एंजाइम की सहायता से सरलतापूर्वक हो सके । इस क्रिया को वसा का इमल्सीकरण या पायसीकरण कहते है ।
क्षुद्रांत्र के द्वारा भी स्त्रावित एंजाइम भी भोजन में मिलाए जाते है जो प्रोटीन को अमीनों अम्लों में ,जटिल कार्बोहाइड्रेट को ग्लूकोज में और वसा को वसा अम्ल व ग्लिसरोल में पाचित कर देते है । इन पाचित पदार्थों को क्षुद्रांत्र की भित्ति के द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है । क्षुद्रांत्र के आंतरिक अस्तर पर अनेक अंगुली के समान प्रवर्ध होते है , जिन्हें दीर्घरोम कहते है । ये अवशोषण का सतही क्षेत्रफल बढ़ाते है ।
दीर्घरोमों में रूधिर वाहिकाऐं अधिसंख्य में होती है, जो अवशोषित भोजन को शरीर की प्रत्येक कोशिका में पहुँचाती है । यहाँ इसका उपयोग ऊर्जा प्राप्त करने में , नए उत्तकों के निर्माण में और पुराने उत्तको की मरम्मत में होता है ।
vi.बृहद्रांत्र(बड़ी आंत्र) - बिना पचा हुआ भोजन बृहद्रांत्र में भेज दिया जाता है जहाँ अधिसंख्य दीर्घरोम इसमें उपस्थित जल का अवशोषण कर लेते है । शेष पदार्थ गुदा द्वार द्वारा शरीर के बाहर मल के रूप में त्याग दिया जाता है, इस क्रिया को बहिःक्षेपण कहते है ।
⦁एसिडिटी - आमाशय का श्लेष्म स्तर HCl से आमाशय की दीवार की रक्षा करता है । कभी-कभी HCl का स्त्रावण ज्यादा होने लगता है जिसके कारण हमें खट्टी डकारे आने लगती है ,इस स्थिति को ही एसिडिटी कहते है ।
क्षारीय पदार्थों के उपयोग से इससे छुटकारा पाया जा सकता है जैसे मिल्क ऑफ मैग्निशिया , इनो आदि । कई औषधियाँ भी इससे राहत प्रदान करती है ।
⦁दंतक्षरण- दंतक्षरण या दंतक्षय इनैमल तथा डेंटीन के शनैः शनैः मृदूकरण के कारण होता है । इसका प्रारंभ तब होता है जब जीवाणु शर्करा पर क्रिया करके अम्ल बनाते है तब इनैमल मृदू या विखनिजीकृत हो जाता है । अनेक जीवाणु कोशिका खाद्य कणों के साथ मिलकर दाँतों पर चिपक कर दंतप्लाक बना देते है । प्लाक दांतों को ढ़क लेता है इसलिए लार अम्ल को उदासीन करने के लिए दंत सतह तक नहीं पहुँच पाती है और सूक्ष्मजीव मज्जा(केविटी या गुहा) में प्रवेश कर जलन व संक्रमण उत्पन्न करते है ।
अतः भोजनोपरांत ब्रश करने से प्लाक हट सकता है और इससे जीवाणु का आक्रमण नहीं होता है ।
⦁विभिन्न पथों द्वारा ग्लुकोज का विखंडन-
⦁कोशिका में A.T.P. का उपयोग पेशियों के सिकुड़ने , प्रोटीन संश्लेषण , तंत्रिका आवेग संचरण आदि अनेक क्रियाओं के लिए किया जा सकता है ।
⦁मानव श्वसन तंत्र
श्वसन- शरीर के बाहर से ऑक्सीजन को ग्रहण करना तथा कोशिकीय आवश्यकतानुसार खाद्य स्रोत के विघटन में उसका उपयोग ' श्वसन' कहलाता है ।
नासाद्वार से वायु शरीर के अन्दर प्रवेश करती है । नासाद्वार में उपस्थित महीन बाल इस वायु को निस्पंदित करते है जिससे धूल के कण अलग हो जाते , इसमें श्लेष्म परत भी सहायक होती है । इसके पश्चात शुद्ध वायु कंठ से होती हुई श्वासनली में प्रवेश करती है । कंठ में C- आकार के उपास्थिल वलय होते है जो श्वासनली को निपतित(पिचकने) होने से बचाते है । श्वासनली आगे जाकर दो भागों में बंट जाती है । प्रत्येक भाग अपनी ओर के फुफ्फुसीय खंड में प्रवेश करता है और छोटी-छोटी श्वसनिकाओं या नलिकाओं में विभक्त हो जाता है । अंत में यह गुब्बारेनुमा संरचनाओं के जाल से संपर्कित हो जाता है , जिन्हें कूपिकाऐं कहते है । कूपिकाऐं गैसों के विनिमय के लिए सतह उपलब्ध करवाती है । इनकी भित्ति में में रूधिर वाहिकाओं का विस्तीर्ण जाल होता है । अन्तः श्वसन में वायु(ऑक्सीजन) कूपिकाओं की सतह से विनिमयित होकर वाहिकाओं के द्वारा शरीर की प्रत्येक कोशिका में पहुँचा दी जाता है । बहिः श्वसन में प्रत्येक कोशिका में निर्मित CO2 वाहिकाओं के द्वारा कूपिकाओं की सतह तक लायी जाती और अंत में नासाद्वार के द्वारा बाहर निकाल दी जाती है ।
⦁ यदि कूपिकाओं की सतह को फैला दिया जाए तो यह 80 वर्ग मीटर क्षेत्र को ढ़क लेंगी ।
⦁ ऑक्सीजन का परिवहन विभिन्न उत्तकों तक हिमोग्लोबिन नामक श्वसन वर्णक के द्वारा किया जाता है जिसमें ऑक्सीजन के प्रति उच्च बंधुता होती है ।
⦁ CO2 जल में अधिक विलेय है इसलिए इसका परिवहन हमारे रूधिर में विलेय आवस्था में होता है ।
पाचन- वह प्रक्रिया जिसके द्वारा जटिल भोज्य पदार्थों को सरल अवशोषण योग्य भोज्य पदार्थों में बदला जाता है ताकि वे शरीर द्वारा उपयोग में लाए जा सके , पाचन कहलाती है ।
वह अंगतंत्र जो पाचन क्रिया से संबंधित होता है , पाचन तंत्र कहलाता है । इसे दो भागों में बांटते है -
1. आहारनाल 2. पाचन ग्रंथिया
1. आहारनाल- मनुष्य की आहारनाल पूर्ण होती है । यह मुँह से गुदा तक विस्तारित एक नली के समान होती है । इसे निम्न भागों में बांटते है-
i.मुँह - मुँह में दांत भोजन को छोटे-छोटे कणों में तोड़ते है और जीह्वा लार की मदद से भोजन को अच्छी तरह मिलाती है एवं भोजन को लसलसा बनाती है । यहाँ लार में उपस्थित एंजाइम लार एमाइलेस या टायलिन मंड या स्टार्च कणों को शर्करा में बदल देते है ।
ii.ग्रसनी- मुँख गुहा के नीचे ग्रसनी होती है । ग्रसनी एक ऐसा स्थान है जहाँ श्वसन तंत्र तथा पाचन तंत्र दोनों खुलते है । यहाँ कोई पाचन नहीं होता है ।
iii.ग्रसिका(इसोफेगस) - इसमें क्रमांकुंचन गति पायी जाती है ,जिसके द्वारा भोजन आमाशय में पहुँचता है । ग्रसिका में कोई पाचन नहीं होता है ।
iv.आमाशय- भोजन के आने पर आमाशय फैल जाता है ।और जठर ग्रंथियों के द्वारा जठर रस भोजन में मिलाए जाते है व भोजन को अच्छी तरह मिश्रित किया जाता है । जठर ग्रथियाँ हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCl) , पेप्सिनोजन व प्रोरेनिन आदि का स्त्रावण करती है । HCl अम्लीय माध्यम तैयार करता है व पेप्सिनोजन को सक्रिय पेप्सिन में और प्रोरेनिन को सक्रिय रेनिन में बदलता है । पेप्सिन प्रोटीन का पाचन करता है व रेनिन दूध में उपस्थित में प्रोटीन केसीन का पाचन करता है ।
v.क्षुद्रांत्र(छोटी आंत्र) - क्षुद्रांत्र आहारनाल का सबसे लंबा भाग है । इसकी लंबाई लगभग 5-6 मीटर होती है । आमाशय से भोजन क्षुद्रांत्र में प्रवेश करता है । क्षुद्रांत्र में आए हुए भोजन में अग्नाशयी रस व पित्त रस मिलाए जाते है । पित्त रस भोजन को क्षारीय बनाते है ताकि अग्नाशयी रस उस पर क्रिया कर सके । इसके अलावा पित्त रस वसा को छोटी-छोटी गोलिकाओं में तोड़ देते है ताकि वसा का पाचन लाइपेज एंजाइम की सहायता से सरलतापूर्वक हो सके । इस क्रिया को वसा का इमल्सीकरण या पायसीकरण कहते है ।
क्षुद्रांत्र के द्वारा भी स्त्रावित एंजाइम भी भोजन में मिलाए जाते है जो प्रोटीन को अमीनों अम्लों में ,जटिल कार्बोहाइड्रेट को ग्लूकोज में और वसा को वसा अम्ल व ग्लिसरोल में पाचित कर देते है । इन पाचित पदार्थों को क्षुद्रांत्र की भित्ति के द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है । क्षुद्रांत्र के आंतरिक अस्तर पर अनेक अंगुली के समान प्रवर्ध होते है , जिन्हें दीर्घरोम कहते है । ये अवशोषण का सतही क्षेत्रफल बढ़ाते है ।
दीर्घरोमों में रूधिर वाहिकाऐं अधिसंख्य में होती है, जो अवशोषित भोजन को शरीर की प्रत्येक कोशिका में पहुँचाती है । यहाँ इसका उपयोग ऊर्जा प्राप्त करने में , नए उत्तकों के निर्माण में और पुराने उत्तको की मरम्मत में होता है ।
vi.बृहद्रांत्र(बड़ी आंत्र) - बिना पचा हुआ भोजन बृहद्रांत्र में भेज दिया जाता है जहाँ अधिसंख्य दीर्घरोम इसमें उपस्थित जल का अवशोषण कर लेते है । शेष पदार्थ गुदा द्वार द्वारा शरीर के बाहर मल के रूप में त्याग दिया जाता है, इस क्रिया को बहिःक्षेपण कहते है ।
⦁एसिडिटी - आमाशय का श्लेष्म स्तर HCl से आमाशय की दीवार की रक्षा करता है । कभी-कभी HCl का स्त्रावण ज्यादा होने लगता है जिसके कारण हमें खट्टी डकारे आने लगती है ,इस स्थिति को ही एसिडिटी कहते है ।
क्षारीय पदार्थों के उपयोग से इससे छुटकारा पाया जा सकता है जैसे मिल्क ऑफ मैग्निशिया , इनो आदि । कई औषधियाँ भी इससे राहत प्रदान करती है ।
⦁दंतक्षरण- दंतक्षरण या दंतक्षय इनैमल तथा डेंटीन के शनैः शनैः मृदूकरण के कारण होता है । इसका प्रारंभ तब होता है जब जीवाणु शर्करा पर क्रिया करके अम्ल बनाते है तब इनैमल मृदू या विखनिजीकृत हो जाता है । अनेक जीवाणु कोशिका खाद्य कणों के साथ मिलकर दाँतों पर चिपक कर दंतप्लाक बना देते है । प्लाक दांतों को ढ़क लेता है इसलिए लार अम्ल को उदासीन करने के लिए दंत सतह तक नहीं पहुँच पाती है और सूक्ष्मजीव मज्जा(केविटी या गुहा) में प्रवेश कर जलन व संक्रमण उत्पन्न करते है ।
अतः भोजनोपरांत ब्रश करने से प्लाक हट सकता है और इससे जीवाणु का आक्रमण नहीं होता है ।
⦁विभिन्न पथों द्वारा ग्लुकोज का विखंडन-
- अधिकांश कोशिकीय प्रक्रमों के लिए ए.टी.पी. (A.T.P.) ऊर्जा मुद्रा है । श्वसन प्रक्रम में मोचित ऊर्जा का उपयोग ए.डी.पी. तथा अकार्बनिक फॉस्फेट से ए.टी.पी. अणु बनाने में किया जाता है ।
⦁कोशिका में A.T.P. का उपयोग पेशियों के सिकुड़ने , प्रोटीन संश्लेषण , तंत्रिका आवेग संचरण आदि अनेक क्रियाओं के लिए किया जा सकता है ।
⦁मानव श्वसन तंत्र
श्वसन- शरीर के बाहर से ऑक्सीजन को ग्रहण करना तथा कोशिकीय आवश्यकतानुसार खाद्य स्रोत के विघटन में उसका उपयोग ' श्वसन' कहलाता है ।
नासाद्वार से वायु शरीर के अन्दर प्रवेश करती है । नासाद्वार में उपस्थित महीन बाल इस वायु को निस्पंदित करते है जिससे धूल के कण अलग हो जाते , इसमें श्लेष्म परत भी सहायक होती है । इसके पश्चात शुद्ध वायु कंठ से होती हुई श्वासनली में प्रवेश करती है । कंठ में C- आकार के उपास्थिल वलय होते है जो श्वासनली को निपतित(पिचकने) होने से बचाते है । श्वासनली आगे जाकर दो भागों में बंट जाती है । प्रत्येक भाग अपनी ओर के फुफ्फुसीय खंड में प्रवेश करता है और छोटी-छोटी श्वसनिकाओं या नलिकाओं में विभक्त हो जाता है । अंत में यह गुब्बारेनुमा संरचनाओं के जाल से संपर्कित हो जाता है , जिन्हें कूपिकाऐं कहते है । कूपिकाऐं गैसों के विनिमय के लिए सतह उपलब्ध करवाती है । इनकी भित्ति में में रूधिर वाहिकाओं का विस्तीर्ण जाल होता है । अन्तः श्वसन में वायु(ऑक्सीजन) कूपिकाओं की सतह से विनिमयित होकर वाहिकाओं के द्वारा शरीर की प्रत्येक कोशिका में पहुँचा दी जाता है । बहिः श्वसन में प्रत्येक कोशिका में निर्मित CO2 वाहिकाओं के द्वारा कूपिकाओं की सतह तक लायी जाती और अंत में नासाद्वार के द्वारा बाहर निकाल दी जाती है ।
⦁ यदि कूपिकाओं की सतह को फैला दिया जाए तो यह 80 वर्ग मीटर क्षेत्र को ढ़क लेंगी ।
⦁ ऑक्सीजन का परिवहन विभिन्न उत्तकों तक हिमोग्लोबिन नामक श्वसन वर्णक के द्वारा किया जाता है जिसमें ऑक्सीजन के प्रति उच्च बंधुता होती है ।
⦁ CO2 जल में अधिक विलेय है इसलिए इसका परिवहन हमारे रूधिर में विलेय आवस्था में होता है ।
T. M. K. C.
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