Sunday 3 December 2017

अध्याय-6 जैव प्रक्रम, 10th class ncert science chapter-6 part-3

⦁ह्रदय-  हमारा ह्रदय पंप की तरह कार्य करता है । मानव ह्रदय एक पेशीय अंग है जो हमारी मुट्ठी के आकार का होता है । हमारा ह्रदय चार कोष्ठीय होता है । जिसमें दो आलिंद व दो निलय होते है ।निलय ,आलिंदो की अपेक्षा बड़े होते है और उनकी भित्तियाँ भी मोटी होती है ।

फुफ्फुसीय शिराओं से शुद्ध रक्त(ऑक्सीजनित रक्त) बाऐं आलिंद में आता है । बाऐं आलिंद में रूधिर पर्याप्त मात्रा में भरने पर द्विवलन कपाट खुल जाते है । और रक्त बाऐं निलय में आता है व बायाँ आलिंद शिथिल हो जाता ,बाऐं निलय के भरने पर रूधिर महाधमनी में पंप किया जाता है यहाँ से यह धमनियों ,धमनिकओं आदि को भेज दिया जाता है और अंत में इसे शरीर के प्रत्येक भाग तक पहुँचा दिया जाता है ।शरीर के प्रत्येक भाग से अशुद्ध रूधिर(विऑक्सीजनित रक्त) शिरिकाओं, शिराओं आदि से होते हुए यह महाशिरा में पहुँचता है और यहाँ से यह दायाँ आलिंद में जाता है । इसके पश्चात यह त्रिवलन कपाट खुलने से दायाँ निलय में आ जाता है । अंत में इसे दायाँ निलय के द्वारा फुफ्फुसीय धमनी में भेज दिया जाता है । फुफ्फुसीय धमनी इसे ऑक्सिजनित करने के लिए पुनः फुफ्फुस में भेज देती

इस प्रकार एक ह्रदय चक्र में रूधिर ह्रदय में दो बार प्रवेश करता है इस कारण इसे दोहरा परिसंचरण कहते है ।

रूधिर वाहिकाओं की भित्ति के विरूद्ध जो दाब लगता है ,उसे रक्त दाब कहते है ।
निलय प्रकुंचन के दौरान धमनियों के अंदर का दाब  प्रकुंचन दाब तथा निलय अनुशिथिलन के दौरान धमनी के अंदर का दाब अनुशिथिलन दाब कहलाता है । सामान्य प्रकुंचन दाब 120 mmHg व अनुशिथिलन दाब 80mmHg होता है । सामान्य व्यक्ति का रक्त दाब 120/80 mmHg होता है । रक्त दाब को स्फीग्नोमेनोमीटर यंत्र के द्वारा मापा जाता है ।

⦁प्लैटलैट्स-  प्लैटलैट्स कोशिकाऐं पूरे रूधिर तंत्र में भ्रमण करती रहती है । घाव लगे स्थान पर ये रूधिर का थक्का बनाकर रक्त स्राव को रोकती है । जिससे रूधिर का चोट लगे स्थान से बहना बंद हो जाता है ।

⦁लसिका-  यदि रक्त में से कुछ प्लाज्मा प्रोटीन और रूधिर कोशिकऐं हटा दी जाऐं तो शेष बचा तरल लसिका कहलाता है ।इस तरल में अल्प मात्रा में प्रोटीन होते है । यह तरल रंगहीन होता है । पचा हुआ व क्षुद्रांत्र द्वारा अवशोषित वसा का वहन लसीका द्वारा होता है । इस प्रकार लसिका वहन में मदद करता है ।

⦁पौधों में परिवहन-  पौधों में परिवहन के लिए विशिष्टीकृत उत्तक पाए जाते है । जिन्हें संवहन बंडल कहते है । संवहन बंडल में दो प्रकार के उत्तक पाए जाते है -
1. जाइलम    2.  फ्लोएम

1.जाइलम- यह जल व खनिज लवणों को जड़ो से पौधे की विभिन्न भागों तक पहुँचाता है । इसके निम्न भाग है-
i. वाहिनिका
ii. वाहिका
iii. जाइलम पैरेनकाइमा
iv. जाइलम तंतु
2. फ्लोएम- यह भोजन व अन्य पोषक पदार्थों को पत्तियों से पौधे के विभिन्न भागों तक पहुँचाते है । इसके निम्न भाग है -
i. चालिनी नलिका
ii. सहायक कोशिका
iii. फ्लोएम पेरेनकाइमा
iv. फ्लोएम तंतु

⦁मानव उत्सर्जन तंत्र-     मानव के उत्सर्जन तंत्र में एक जोड़ा वृक्क , एक जोड़ी मूत्रवाहिनी, एक मूत्राशय तथा एक मूत्रमार्ग होता है । वृक्क सेम के बीज के आकार के होते है जो उदर में रीढ़ की हड्डी के दोनों ओर स्थित होते है ।
उत्सर्जन-
                शरीर में मेटाबॉलिक (उपापचयी) प्रक्रियाओं के फलस्वरूप बने हानिकारक या अपशिष्ट उपोत्पादों को बाहर निकालने के प्रक्रम को उत्सर्जन कहते है ।

मूत्र निर्माण- मूत्र निर्माण का उद्देश्य रूधिर से हानिकार पदार्थों जैसे यूरिया आदि को छानकर बाहर करना है ।
वृक्क में आधारी निस्यंदन एकक(नेफ्रोन या वृक्काणु) ,जिन्हें वृक्क की संरचनात्मक व क्रियात्मक ईकाई कहते है , में बहुत पतली भित्ति वाली रूधिर कोशिकाओं का गुच्छ होता है । नेफ्रोन आपस में निकटता से पैक रहते है । प्रारंभिक निस्यंद में कुछ पदार्थ जैसे ग्लूकोज , अमीनों अम्ल , लवण और प्रचुर मात्रा में जल रह जाते है । इन पदार्थों का चयनित पुनरवशोषण हो जाता है । जल की मात्रा का पुनरवशोषण शरीर में उपलब्ध जल की मात्रा पर तथा कितना विलेय अपशिष्ट(यूरिया) उत्सर्जित करना है, पर निर्भर करता है ।प्रत्येक वृक्क में बना मूत्र एक लंबी नलिका, मूत्रवाहिनी में प्रवेश करता है । दोनों मूत्रवाहिनी मूत्राशय से जुड़ी रहती है और इनसे मूत्र मूत्राशय में आता है । मूत्राशय पेशीय होता है और उचित स्पंदन या आवेग मिलने पर मूत्र मूत्रमार्ग के द्वारा बाहर त्याग दिया जाता है ।




⦁अपोहन(कृत्रिम वृक्क)-  वृक्कों के संक्रमित हो जाने या अक्रिय हो जाने की दशा में शरीर में निर्मित नाइट्रोजनी अपशिष्ट पदार्थों को शरीर से बाहर निकालने के लिए जिस कृत्रिम युक्ति का प्रयोग किया जाता है , उसे अपोहन कहते है ।

कृत्रिम वृक्क बहुत सी अर्धपारगम्य आस्तर वाली नलिकाओं से युक्त होती है । ये नलिकाऐं अपोहन द्रव से भरी टंकी में लगी होती है । इस द्रव का परासरण दाब रूधिर जैसा ही होता है लेकिन इसमें नाइट्रोजनी अपशिष्ट नहीं होते हैं । रोगी के रूधिर को इन नलिकाओं से प्रवाहित करते है । इस मार्ग में रूधिर से अपशिष्ट उत्पाद विसरण द्वारा अपोहन द्रव में आ जाते है । शुद्धिकृत रूधिर वापस रोगी के शरीर में पंपित कर दिया जाता है । यह वृक्क के कार्य के समान ही है लेकिन एक अंतर है कि इसमें कोई पुनरवशोषण नहीं होता है । प्रायः एक स्वस्थ वयस्क में प्रतिदिन 180 लीटर आरंभिक निस्यंद वृक्क में होता है । यद्यपि एक दिन में उत्सर्जित मूत्र का आयतन वास्तव में एक या दो लीटर होता है क्योंकि शेष निस्यंद वृक्क नलिकाओं में पुनरवशोषित हो जाता है ।

⦁पादपों में उत्सर्जन-    पादप में उत्सर्जन के लिए जंतुओं से भिन्न युक्तियाँ अपनाते है । इनमें कुछ अपशिष्ट पदार्थ गिरने वाली पत्तियों में एकत्र हो जाते है । अन्य अपशिष्ट उत्पाद रेजिन तथा गोंद के रूप में विशेष रूप पुराने जाइलम में संचित रहते है । पादप भी कुछ अपशिष्ट पदार्थों को अपने आसपास की मृदा में उत्सर्जित करते है ।

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