अध्याय-6
जैव प्रक्रम, 10th class ncert science
⦁जैव प्रक्रम- जीवों में वे सभी प्रक्रम जो सम्मिलित रूप से अनुरक्षण का कार्य करते हैं , जैव प्रक्रम कहलाते है ।
⦁श्वसन- शरीर के बाहर से ऑक्सीजन को ग्रहण करना तथा कोशिकीय आवश्यकतानुसार खाद्य स्रोत के विघटन में उसका उपयोग ' श्वसन' कहलाता है ।
⦁एक कोशिकीय जीव पर्यावरण के सीधे संपर्क में रहते है । अत: वे ऑक्सीजन की पूर्ति विसरण के द्वारा सरलतापूर्वक कर सकते है । जबकी बहुकोशिकीय जीवों में कोशिकाऐं सीधे पर्यावरण के संपर्क में नहीं रहती है अत: ऑक्सीजन की आवश्यकता पूरी करने में विसरण अपर्याप्त है ।
⦁उत्सर्जन - शरीर में मेटाबॉलिक (उपापचयी) प्रक्रियाओं के फलस्वरूप बने हानिकारक या अपशिष्ट उपोत्पादों को बाहर निकालने के प्रक्रम को उत्सर्जन कहते है ।
⦁स्वपोषी व विषमपोषी जीव-
स्वपोषी जीव- ऐसे जीव जो अपना भोजन स्वयं बनाते हैं , उन्हें स्वपोषी जीव कहते है । इनमें संचित भोजन स्टार्च होता है । उदाहरण- पौधे
विषमपोषी जीव- ऐसे जीव जो अपना भोजन स्वयं नहीं बनाते है और भोजन के लिए परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से स्वपोषियों पर निर्भर रहते है ,उन्हें विषमपोषी जीव कहते है । इनमें संचित भोजन या कार्बोहाइड्रेट ग्लाइकोजन होता है । उदाहरण- मानव, जूँ , अमरबेल
⦁पोषण- वह प्रक्रिया जिसके अन्तर्गत पादपों के द्वारा बनाए गये भोज्य पदार्थ या जंतुओं के द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पादपों से ग्रहण किए गए भोज्य पदार्थ जो सजीवों की विभिन्न जैविक व शारीरिक क्रियाओं में सहायक होते है , पोषण कहलाती है ।
पोषण के प्रकार-
स्वपोषी पोषण- ऐसे पोषण जिसमें स्वपोषी जीव बाहर से लिए गए पदार्थों को ऊर्जा के रूप में संचित कर लेते है , स्वपोषी पोषण कहलाता है । उदाहरण- पौधे
विषमपोषी पोषण- ऐसा पोषण जिसमें जीव आहार या भोजन के लिए पादपों या अन्य जीव पर निर्भर रहते है ,उसे विषमपोषी पोषण या परपोषी पोषण कहते है । उदाहरण-मानव , जूँ आदि ।
⦁अमीबा एककोशिकीय जीव जो कूटपाद की सहायता से भोजन को ग्रहण करता है ।
⦁प्रकाश संश्लेषण- पौधे में सजीव कोशिकाओं (क्लोरोप्लास्ट) के द्वारा प्रकाश ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में बदलना, प्रकाश संश्लेषण कहलाता है । प्रकाश संश्लेषण की क्रिया पौधे के हरे भागों जैसे पत्ति आदि में होती है ।
इसमें निम्न चरण होते है -
I. क्लोरोफिल (क्लोरोप्लास्ट) द्वारा प्रकाश ऊर्जा को अवशोषित करना ।
II. प्रकाश ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में रूपांतरित करना तथा जल अणुओं का हाइड्रोजन व ऑक्सीजन में अपघटन करना ।
III. कार्बनडाइऑक्साइड (CO2) का कार्बोहाइड्रेट में अपचयन करना ।
प्रकाश संश्लेषण की समीकरण-
⦁स्थलीय पौधे प्रकाश संश्लेषण के लिए जल की पूर्ति जड़ों द्वारा मिट्टी में उपस्थित जल के अवशोषण से करते है । इसी के साथ विभिन्न तत्व जैसे नाइट्रोजन , फॉस्फोरस , लोहा तथा मैग्निशियम भी किसी न किसी रूप में लिए जाते है ।
⦁रंध्र- ये पत्ति की सतह पर उपस्थित होते है । प्रकाश संश्लेषण के लिए गैसों का अधिकांश आदान-प्रदान इन्हीं के द्वारा होता है ।
लेकिन गैसों का आदान-प्रदान तने, पत्ति व जड़ की सतह से भी होता है ।इन रंध्रों स पर्याप्त मात्रा में जल की हानि भी होती है ।जब प्रकाश संश्लेषण के लिए CO2 की आवश्यकता नहीं होती है तो पौधा इन रंध्रों को बंद कर लेता है । रंध्रों का खुलना व बंद होना द्वार कोशिकाओं का कार्य है । द्वार कोशिकाऐं में जब जल अंदर प्रवेश करता है तो वे फूल जाती है और रंध्र का छिद्र खुल जाता है । इसी प्रकार जब द्वार कोशिकाऐं सिकुड़ती है तो छिद्र बंद हो जाता है ।
क्लोरोप्लास्ट(हरित लवक)- हरे रंग के बिंदूवत्त कोशिकांग जिनमें क्लोरोफिल होता है उन्हें क्लोरोप्लास्ट कहते है । ये प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में सहायक होते है ।
⦁मानव पाचन तंत्र-
पाचन- वह प्रक्रिया जिसके द्वारा जटिल भोज्य पदार्थों को सरल अवशोषण योग्य भोज्य पदार्थों में बदला जाता है ताकि वे शरीर द्वारा उपयोग में लाए जा सके , पाचन कहलाती है ।
वह अंगतंत्र जो पाचन क्रिया से संबंधित होता है , पाचन तंत्र कहलाता है । इसे दो भागों में बांटते है -
1. आहारनाल 2. पाचन ग्रंथिया
1. आहारनाल- मनुष्य की आहारनाल पूर्ण होती है । यह मुँह से गुदा तक विस्तारित एक नली के समान होती है । इसे निम्न भागों में बांटते है-
i.मुँह - मुँह में दांत भोजन को छोटे-छोटे कणों में तोड़ते है और जीह्वा लार की मदद से भोजन को अच्छी तरह मिलाती है एवं भोजन को लसलसा बनाती है । यहाँ लार में उपस्थित एंजाइम लार एमाइलेस या टायलिन मंड या स्टार्च कणों को शर्करा में बदल देते है ।
ii.ग्रसनी- मुँख गुहा के नीचे ग्रसनी होती है । ग्रसनी एक ऐसा स्थान है जहाँ श्वसन तंत्र तथा पाचन तंत्र दोनों खुलते है । यहाँ कोई पाचन नहीं होता है ।
iii.ग्रसिका(इसोफेगस) - इसमें क्रमांकुंचन गति पायी जाती है ,जिसके द्वारा भोजन आमाशय में पहुँचता है । ग्रसिका में कोई पाचन नहीं होता है ।
iv.आमाशय- भोजन के आने पर आमाशय फैल जाता है ।और जठर ग्रंथियों के द्वारा जठर रस भोजन में मिलाए जाते है व भोजन को अच्छी तरह मिश्रित किया जाता है । जठर ग्रथियाँ हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCl) , पेप्सिनोजन व प्रोरेनिन आदि का स्त्रावण करती है । HCl अम्लीय माध्यम तैयार करता है व पेप्सिनोजन को सक्रिय पेप्सिन में और प्रोरेनिन को सक्रिय रेनिन में बदलता है । पेप्सिन प्रोटीन का पाचन करता है व रेनिन दूध में उपस्थित में प्रोटीन केसीन का पाचन करता है ।
v.क्षुद्रांत्र(छोटी आंत्र) - क्षुद्रांत्र आहारनाल का सबसे लंबा भाग है । इसकी लंबाई लगभग 5-6 मीटर होती है । आमाशय से भोजन क्षुद्रांत्र में प्रवेश करता है । क्षुद्रांत्र में आए हुए भोजन में अग्नाशयी रस व पित्त रस मिलाए जाते है । पित्त रस भोजन को क्षारीय बनाते है ताकि अग्नाशयी रस उस पर क्रिया कर सके । इसके अलावा पित्त रस वसा को छोटी-छोटी गोलिकाओं में तोड़ देते है ताकि वसा का पाचन लाइपेज एंजाइम की सहायता से सरलतापूर्वक हो सके । इस क्रिया को वसा का इमल्सीकरण या पायसीकरण कहते है ।
क्षुद्रांत्र के द्वारा भी स्त्रावित एंजाइम भी भोजन में मिलाए जाते है जो प्रोटीन को अमीनों अम्लों में ,जटिल कार्बोहाइड्रेट को ग्लूकोज में और वसा को वसा अम्ल व ग्लिसरोल में पाचित कर देते है । इन पाचित पदार्थों को क्षुद्रांत्र की भित्ति के द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है । क्षुद्रांत्र के आंतरिक अस्तर पर अनेक अंगुली के समान प्रवर्ध होते है , जिन्हें दीर्घरोम कहते है । ये अवशोषण का सतही क्षेत्रफल बढ़ाते है ।
दीर्घरोमों में रूधिर वाहिकाऐं अधिसंख्य में होती है, जो अवशोषित भोजन को शरीर की प्रत्येक कोशिका में पहुँचाती है । यहाँ इसका उपयोग ऊर्जा प्राप्त करने में , नए उत्तकों के निर्माण में और पुराने उत्तको की मरम्मत में होता है ।
vi.बृहद्रांत्र(बड़ी आंत्र) - बिना पचा हुआ भोजन बृहद्रांत्र में भेज दिया जाता है जहाँ अधिसंख्य दीर्घरोम इसमें उपस्थित जल का अवशोषण कर लेते है । शेष पदार्थ गुदा द्वार द्वारा शरीर के बाहर मल के रूप में त्याग दिया जाता है, इस क्रिया को बहिःक्षेपण कहते है ।
⦁एसिडिटी - आमाशय का श्लेष्म स्तर HCl से आमाशय की दीवार की रक्षा करता है । कभी-कभी HCl का स्त्रावण ज्यादा होने लगता है जिसके कारण हमें खट्टी डकारे आने लगती है ,इस स्थिति को ही एसिडिटी कहते है ।
क्षारीय पदार्थों के उपयोग से इससे छुटकारा पाया जा सकता है जैसे मिल्क ऑफ मैग्निशिया , इनो आदि । कई औषधियाँ भी इससे राहत प्रदान करती है ।
⦁दंतक्षरण- दंतक्षरण या दंतक्षय इनैमल तथा डेंटीन के शनैः शनैः मृदूकरण के कारण होता है । इसका प्रारंभ तब होता है जब जीवाणु शर्करा पर क्रिया करके अम्ल बनाते है तब इनैमल मृदू या विखनिजीकृत हो जाता है । अनेक जीवाणु कोशिका खाद्य कणों के साथ मिलकर दाँतों पर चिपक कर दंतप्लाक बना देते है । प्लाक दांतों को ढ़क लेता है इसलिए लार अम्ल को उदासीन करने के लिए दंत सतह तक नहीं पहुँच पाती है और सूक्ष्मजीव मज्जा(केविटी या गुहा) में प्रवेश कर जलन व संक्रमण उत्पन्न करते है ।
अतः भोजनोपरांत ब्रश करने से प्लाक हट सकता है और इससे जीवाणु का आक्रमण नहीं होता है ।
⦁विभिन्न पथों द्वारा ग्लुकोज का विखंडन-
⦁कोशिका में A.T.P. का उपयोग पेशियों के सिकुड़ने , प्रोटीन संश्लेषण , तंत्रिका आवेग संचरण आदि अनेक क्रियाओं के लिए किया जा सकता है ।
⦁मानव श्वसन तंत्र
श्वसन- शरीर के बाहर से ऑक्सीजन को ग्रहण करना तथा कोशिकीय आवश्यकतानुसार खाद्य स्रोत के विघटन में उसका उपयोग ' श्वसन' कहलाता है ।
नासाद्वार से वायु शरीर के अन्दर प्रवेश करती है । नासाद्वार में उपस्थित महीन बाल इस वायु को निस्पंदित करते है जिससे धूल के कण अलग हो जाते , इसमें श्लेष्म परत भी सहायक होती है । इसके पश्चात शुद्ध वायु कंठ से होती हुई श्वासनली में प्रवेश करती है । कंठ में C- आकार के उपास्थिल वलय होते है जो श्वासनली को निपतित(पिचकने) होने से बचाते है । श्वासनली आगे जाकर दो भागों में बंट जाती है । प्रत्येक भाग अपनी ओर के फुफ्फुसीय खंड में प्रवेश करता है और छोटी-छोटी श्वसनिकाओं या नलिकाओं में विभक्त हो जाता है । अंत में यह गुब्बारेनुमा संरचनाओं के जाल से संपर्कित हो जाता है , जिन्हें कूपिकाऐं कहते है । कूपिकाऐं गैसों के विनिमय के लिए सतह उपलब्ध करवाती है । इनकी भित्ति में में रूधिर वाहिकाओं का विस्तीर्ण जाल होता है । अन्तः श्वसन में वायु(ऑक्सीजन) कूपिकाओं की सतह से विनिमयित होकर वाहिकाओं के द्वारा शरीर की प्रत्येक कोशिका में पहुँचा दी जाता है । बहिः श्वसन में प्रत्येक कोशिका में निर्मित CO2 वाहिकाओं के द्वारा कूपिकाओं की सतह तक लायी जाती और अंत में नासाद्वार के द्वारा बाहर निकाल दी जाती है ।
⦁ यदि कूपिकाओं की सतह को फैला दिया जाए तो यह 80 वर्ग मीटर क्षेत्र को ढ़क लेंगी ।
⦁ ऑक्सीजन का परिवहन विभिन्न उत्तकों तक हिमोग्लोबिन नामक श्वसन वर्णक के द्वारा किया जाता है जिसमें ऑक्सीजन के प्रति उच्च बंधुता होती है ।
⦁ CO2 जल में अधिक विलेय है इसलिए इसका परिवहन हमारे रूधिर में विलेय आवस्था में होता है ।
जैव प्रक्रम, 10th class ncert science
⦁जैव प्रक्रम- जीवों में वे सभी प्रक्रम जो सम्मिलित रूप से अनुरक्षण का कार्य करते हैं , जैव प्रक्रम कहलाते है ।
⦁श्वसन- शरीर के बाहर से ऑक्सीजन को ग्रहण करना तथा कोशिकीय आवश्यकतानुसार खाद्य स्रोत के विघटन में उसका उपयोग ' श्वसन' कहलाता है ।
⦁एक कोशिकीय जीव पर्यावरण के सीधे संपर्क में रहते है । अत: वे ऑक्सीजन की पूर्ति विसरण के द्वारा सरलतापूर्वक कर सकते है । जबकी बहुकोशिकीय जीवों में कोशिकाऐं सीधे पर्यावरण के संपर्क में नहीं रहती है अत: ऑक्सीजन की आवश्यकता पूरी करने में विसरण अपर्याप्त है ।
⦁उत्सर्जन - शरीर में मेटाबॉलिक (उपापचयी) प्रक्रियाओं के फलस्वरूप बने हानिकारक या अपशिष्ट उपोत्पादों को बाहर निकालने के प्रक्रम को उत्सर्जन कहते है ।
⦁स्वपोषी व विषमपोषी जीव-
स्वपोषी जीव- ऐसे जीव जो अपना भोजन स्वयं बनाते हैं , उन्हें स्वपोषी जीव कहते है । इनमें संचित भोजन स्टार्च होता है । उदाहरण- पौधे
विषमपोषी जीव- ऐसे जीव जो अपना भोजन स्वयं नहीं बनाते है और भोजन के लिए परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से स्वपोषियों पर निर्भर रहते है ,उन्हें विषमपोषी जीव कहते है । इनमें संचित भोजन या कार्बोहाइड्रेट ग्लाइकोजन होता है । उदाहरण- मानव, जूँ , अमरबेल
⦁पोषण- वह प्रक्रिया जिसके अन्तर्गत पादपों के द्वारा बनाए गये भोज्य पदार्थ या जंतुओं के द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से पादपों से ग्रहण किए गए भोज्य पदार्थ जो सजीवों की विभिन्न जैविक व शारीरिक क्रियाओं में सहायक होते है , पोषण कहलाती है ।
पोषण के प्रकार-
स्वपोषी पोषण- ऐसे पोषण जिसमें स्वपोषी जीव बाहर से लिए गए पदार्थों को ऊर्जा के रूप में संचित कर लेते है , स्वपोषी पोषण कहलाता है । उदाहरण- पौधे
विषमपोषी पोषण- ऐसा पोषण जिसमें जीव आहार या भोजन के लिए पादपों या अन्य जीव पर निर्भर रहते है ,उसे विषमपोषी पोषण या परपोषी पोषण कहते है । उदाहरण-मानव , जूँ आदि ।
⦁अमीबा एककोशिकीय जीव जो कूटपाद की सहायता से भोजन को ग्रहण करता है ।
⦁प्रकाश संश्लेषण- पौधे में सजीव कोशिकाओं (क्लोरोप्लास्ट) के द्वारा प्रकाश ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में बदलना, प्रकाश संश्लेषण कहलाता है । प्रकाश संश्लेषण की क्रिया पौधे के हरे भागों जैसे पत्ति आदि में होती है ।
इसमें निम्न चरण होते है -
I. क्लोरोफिल (क्लोरोप्लास्ट) द्वारा प्रकाश ऊर्जा को अवशोषित करना ।
II. प्रकाश ऊर्जा को रासायनिक ऊर्जा में रूपांतरित करना तथा जल अणुओं का हाइड्रोजन व ऑक्सीजन में अपघटन करना ।
III. कार्बनडाइऑक्साइड (CO2) का कार्बोहाइड्रेट में अपचयन करना ।
प्रकाश संश्लेषण की समीकरण-
⦁स्थलीय पौधे प्रकाश संश्लेषण के लिए जल की पूर्ति जड़ों द्वारा मिट्टी में उपस्थित जल के अवशोषण से करते है । इसी के साथ विभिन्न तत्व जैसे नाइट्रोजन , फॉस्फोरस , लोहा तथा मैग्निशियम भी किसी न किसी रूप में लिए जाते है ।
⦁रंध्र- ये पत्ति की सतह पर उपस्थित होते है । प्रकाश संश्लेषण के लिए गैसों का अधिकांश आदान-प्रदान इन्हीं के द्वारा होता है ।
लेकिन गैसों का आदान-प्रदान तने, पत्ति व जड़ की सतह से भी होता है ।इन रंध्रों स पर्याप्त मात्रा में जल की हानि भी होती है ।जब प्रकाश संश्लेषण के लिए CO2 की आवश्यकता नहीं होती है तो पौधा इन रंध्रों को बंद कर लेता है । रंध्रों का खुलना व बंद होना द्वार कोशिकाओं का कार्य है । द्वार कोशिकाऐं में जब जल अंदर प्रवेश करता है तो वे फूल जाती है और रंध्र का छिद्र खुल जाता है । इसी प्रकार जब द्वार कोशिकाऐं सिकुड़ती है तो छिद्र बंद हो जाता है ।
क्लोरोप्लास्ट(हरित लवक)- हरे रंग के बिंदूवत्त कोशिकांग जिनमें क्लोरोफिल होता है उन्हें क्लोरोप्लास्ट कहते है । ये प्रकाश संश्लेषण की क्रिया में सहायक होते है ।
⦁मानव पाचन तंत्र-
पाचन- वह प्रक्रिया जिसके द्वारा जटिल भोज्य पदार्थों को सरल अवशोषण योग्य भोज्य पदार्थों में बदला जाता है ताकि वे शरीर द्वारा उपयोग में लाए जा सके , पाचन कहलाती है ।
वह अंगतंत्र जो पाचन क्रिया से संबंधित होता है , पाचन तंत्र कहलाता है । इसे दो भागों में बांटते है -
1. आहारनाल 2. पाचन ग्रंथिया
1. आहारनाल- मनुष्य की आहारनाल पूर्ण होती है । यह मुँह से गुदा तक विस्तारित एक नली के समान होती है । इसे निम्न भागों में बांटते है-
i.मुँह - मुँह में दांत भोजन को छोटे-छोटे कणों में तोड़ते है और जीह्वा लार की मदद से भोजन को अच्छी तरह मिलाती है एवं भोजन को लसलसा बनाती है । यहाँ लार में उपस्थित एंजाइम लार एमाइलेस या टायलिन मंड या स्टार्च कणों को शर्करा में बदल देते है ।
ii.ग्रसनी- मुँख गुहा के नीचे ग्रसनी होती है । ग्रसनी एक ऐसा स्थान है जहाँ श्वसन तंत्र तथा पाचन तंत्र दोनों खुलते है । यहाँ कोई पाचन नहीं होता है ।
iii.ग्रसिका(इसोफेगस) - इसमें क्रमांकुंचन गति पायी जाती है ,जिसके द्वारा भोजन आमाशय में पहुँचता है । ग्रसिका में कोई पाचन नहीं होता है ।
iv.आमाशय- भोजन के आने पर आमाशय फैल जाता है ।और जठर ग्रंथियों के द्वारा जठर रस भोजन में मिलाए जाते है व भोजन को अच्छी तरह मिश्रित किया जाता है । जठर ग्रथियाँ हाइड्रोक्लोरिक अम्ल (HCl) , पेप्सिनोजन व प्रोरेनिन आदि का स्त्रावण करती है । HCl अम्लीय माध्यम तैयार करता है व पेप्सिनोजन को सक्रिय पेप्सिन में और प्रोरेनिन को सक्रिय रेनिन में बदलता है । पेप्सिन प्रोटीन का पाचन करता है व रेनिन दूध में उपस्थित में प्रोटीन केसीन का पाचन करता है ।
v.क्षुद्रांत्र(छोटी आंत्र) - क्षुद्रांत्र आहारनाल का सबसे लंबा भाग है । इसकी लंबाई लगभग 5-6 मीटर होती है । आमाशय से भोजन क्षुद्रांत्र में प्रवेश करता है । क्षुद्रांत्र में आए हुए भोजन में अग्नाशयी रस व पित्त रस मिलाए जाते है । पित्त रस भोजन को क्षारीय बनाते है ताकि अग्नाशयी रस उस पर क्रिया कर सके । इसके अलावा पित्त रस वसा को छोटी-छोटी गोलिकाओं में तोड़ देते है ताकि वसा का पाचन लाइपेज एंजाइम की सहायता से सरलतापूर्वक हो सके । इस क्रिया को वसा का इमल्सीकरण या पायसीकरण कहते है ।
क्षुद्रांत्र के द्वारा भी स्त्रावित एंजाइम भी भोजन में मिलाए जाते है जो प्रोटीन को अमीनों अम्लों में ,जटिल कार्बोहाइड्रेट को ग्लूकोज में और वसा को वसा अम्ल व ग्लिसरोल में पाचित कर देते है । इन पाचित पदार्थों को क्षुद्रांत्र की भित्ति के द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है । क्षुद्रांत्र के आंतरिक अस्तर पर अनेक अंगुली के समान प्रवर्ध होते है , जिन्हें दीर्घरोम कहते है । ये अवशोषण का सतही क्षेत्रफल बढ़ाते है ।
दीर्घरोमों में रूधिर वाहिकाऐं अधिसंख्य में होती है, जो अवशोषित भोजन को शरीर की प्रत्येक कोशिका में पहुँचाती है । यहाँ इसका उपयोग ऊर्जा प्राप्त करने में , नए उत्तकों के निर्माण में और पुराने उत्तको की मरम्मत में होता है ।
vi.बृहद्रांत्र(बड़ी आंत्र) - बिना पचा हुआ भोजन बृहद्रांत्र में भेज दिया जाता है जहाँ अधिसंख्य दीर्घरोम इसमें उपस्थित जल का अवशोषण कर लेते है । शेष पदार्थ गुदा द्वार द्वारा शरीर के बाहर मल के रूप में त्याग दिया जाता है, इस क्रिया को बहिःक्षेपण कहते है ।
⦁एसिडिटी - आमाशय का श्लेष्म स्तर HCl से आमाशय की दीवार की रक्षा करता है । कभी-कभी HCl का स्त्रावण ज्यादा होने लगता है जिसके कारण हमें खट्टी डकारे आने लगती है ,इस स्थिति को ही एसिडिटी कहते है ।
क्षारीय पदार्थों के उपयोग से इससे छुटकारा पाया जा सकता है जैसे मिल्क ऑफ मैग्निशिया , इनो आदि । कई औषधियाँ भी इससे राहत प्रदान करती है ।
⦁दंतक्षरण- दंतक्षरण या दंतक्षय इनैमल तथा डेंटीन के शनैः शनैः मृदूकरण के कारण होता है । इसका प्रारंभ तब होता है जब जीवाणु शर्करा पर क्रिया करके अम्ल बनाते है तब इनैमल मृदू या विखनिजीकृत हो जाता है । अनेक जीवाणु कोशिका खाद्य कणों के साथ मिलकर दाँतों पर चिपक कर दंतप्लाक बना देते है । प्लाक दांतों को ढ़क लेता है इसलिए लार अम्ल को उदासीन करने के लिए दंत सतह तक नहीं पहुँच पाती है और सूक्ष्मजीव मज्जा(केविटी या गुहा) में प्रवेश कर जलन व संक्रमण उत्पन्न करते है ।
अतः भोजनोपरांत ब्रश करने से प्लाक हट सकता है और इससे जीवाणु का आक्रमण नहीं होता है ।
⦁विभिन्न पथों द्वारा ग्लुकोज का विखंडन-
- अधिकांश कोशिकीय प्रक्रमों के लिए ए.टी.पी. (A.T.P.) ऊर्जा मुद्रा है । श्वसन प्रक्रम में मोचित ऊर्जा का उपयोग ए.डी.पी. तथा अकार्बनिक फॉस्फेट से ए.टी.पी. अणु बनाने में किया जाता है ।
⦁कोशिका में A.T.P. का उपयोग पेशियों के सिकुड़ने , प्रोटीन संश्लेषण , तंत्रिका आवेग संचरण आदि अनेक क्रियाओं के लिए किया जा सकता है ।
⦁मानव श्वसन तंत्र
श्वसन- शरीर के बाहर से ऑक्सीजन को ग्रहण करना तथा कोशिकीय आवश्यकतानुसार खाद्य स्रोत के विघटन में उसका उपयोग ' श्वसन' कहलाता है ।
नासाद्वार से वायु शरीर के अन्दर प्रवेश करती है । नासाद्वार में उपस्थित महीन बाल इस वायु को निस्पंदित करते है जिससे धूल के कण अलग हो जाते , इसमें श्लेष्म परत भी सहायक होती है । इसके पश्चात शुद्ध वायु कंठ से होती हुई श्वासनली में प्रवेश करती है । कंठ में C- आकार के उपास्थिल वलय होते है जो श्वासनली को निपतित(पिचकने) होने से बचाते है । श्वासनली आगे जाकर दो भागों में बंट जाती है । प्रत्येक भाग अपनी ओर के फुफ्फुसीय खंड में प्रवेश करता है और छोटी-छोटी श्वसनिकाओं या नलिकाओं में विभक्त हो जाता है । अंत में यह गुब्बारेनुमा संरचनाओं के जाल से संपर्कित हो जाता है , जिन्हें कूपिकाऐं कहते है । कूपिकाऐं गैसों के विनिमय के लिए सतह उपलब्ध करवाती है । इनकी भित्ति में में रूधिर वाहिकाओं का विस्तीर्ण जाल होता है । अन्तः श्वसन में वायु(ऑक्सीजन) कूपिकाओं की सतह से विनिमयित होकर वाहिकाओं के द्वारा शरीर की प्रत्येक कोशिका में पहुँचा दी जाता है । बहिः श्वसन में प्रत्येक कोशिका में निर्मित CO2 वाहिकाओं के द्वारा कूपिकाओं की सतह तक लायी जाती और अंत में नासाद्वार के द्वारा बाहर निकाल दी जाती है ।
⦁ यदि कूपिकाओं की सतह को फैला दिया जाए तो यह 80 वर्ग मीटर क्षेत्र को ढ़क लेंगी ।
⦁ ऑक्सीजन का परिवहन विभिन्न उत्तकों तक हिमोग्लोबिन नामक श्वसन वर्णक के द्वारा किया जाता है जिसमें ऑक्सीजन के प्रति उच्च बंधुता होती है ।
⦁ CO2 जल में अधिक विलेय है इसलिए इसका परिवहन हमारे रूधिर में विलेय आवस्था में होता है ।
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